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Jaina Literature and Philosophy
1218.
Ends.-fol. 160
हमकुप्र०
प्रभु जांने सो सबकुजांने सुचीनासन प्रभुसेंवाः।।
देवचंद प्रभु आतमसत्ता धरो ध्यान नीत मेवा ॥३॥ , हमकुः।
ठाकोर देवचंद लपीतं ।
जिनस्तवन
Jinastavana No.219
1573 (27).
1891-95. Extent.- fol. 4ts to fol. 42. Description.- Complete ; II verses in all. For other details see
No. _1573 (1)...
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__No. 1891-95.
Is
Author.-- Jivana, a devotee of Jagajivana. Subject.- Description of the soul. Begins.-fol. 416 ॥६॥
सिद्धसरूपी मोरों आतमा । ग्यान दर्शन गुणधारी रे॥ रत्नत्रय रिस भोगयो । ममता मोह निवारी रे॥१॥ सि० अतेंद्री सप अनुभवें । आनंदी अधिकारी रे॥
अकशाई समता भन्यो । अनाहारी शुद्ध विचारी रे ॥२॥ सि. etc. Ends.- fol.420
जगतवछल जिन दीजीहं । सुद्ध अ(? स)मकित सुपकारी रे॥ भव भव तुमचि सेवना। मिथ्यामति दुरि निवारी रे॥१०॥ सि. जगजीवन गछराजीयो । ए तो साधुसकलसिरदारी रे।। तास सासन माहे एम कहें मुनी जीवण जयकारी रे ॥ ११॥ सि. इति स्तबन ॥
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जिनस्तुति
Jinastuti
575(46). No. 220
1895-98. Extent.- fol. 39. Description.- The work ends abruptly. For other details see
Namaskāramantra (Vol. XVII, pt. 3, No. 737 ).
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