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Jaina Literature and Philosophy
[. द्वादशारनयचक्र छ मल्लवादिकृत वृद्ध । सप्तशतीनयवाचना कीधी तिहा प्रसीद्ध ॥१६॥ अल्पमतिना चितमें ना ते विस्तार । पुष्कल नय भेदनो भाष्यो अल्प विचार ॥ १७॥ .. 'परतर'मुनिपति गछपति श्रीजिनचंद्रसूरीश । तास सीस पाठकप्रवर पुण्यप्रधानमुनीश ॥ १८ ॥ तसु विजयी पाठकप(प्र)वर सुमतिसागर सहाय । साधुरंगगुणरत्ननघि राजसार उवझाय ॥१९॥ पाठक ज्ञानधरम गुणी पाठक श्रीदीपचंद । तास सीस देवचंद्रकृति भणतां परमानंदः ॥२०॥
इति श्रीनयचक्रटबार्थबाला(व)बोध संपूर्ण पं०श्रीविवेकविजयगणिवाचनार्थ. This is followed in a different hand by the lines as below:भगवंतो अरिहंत (अर्हन्तो भगवन्त) इन्द्रमहिताः सिद्धाश्च सिद्धा(?द्धोश्रि(?स्थिता
आचार्या जिनशासनोन्नतिकरा पूज्या उपाध्यायकाः । श्रीसिद्धांतसुपाठका मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः
पंचे(च)ते परमेष्टिनः प्रतिदिनं कुर्वतु वो मंगलं ॥१॥ Reference.-Published. See No. 8.
नयचका
Nayacakra बालावबोधसहित
with bålāvabodha
1633. No. 12
1891-95. Size.- 94 in. by 4g in. Extent.— 21 folios; 13 lines to a page ; 31 letters to a line.
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This work is tentatively placed here since it is not possible at present to carry on the desired investigation with a view to decide as to what school of thought-Svetāmbara or Digambara, it belongs to.