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Rajasthan Oriental Research Institute, Jodhpur. (Jaipur-Collection)
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1762/11605. महावीरस्तोत्र
॥ ६० ॥
कल्लारणाबलि वल्लरीण उल्लासि महल्लय, पुक्खलवट्टय मेहतुल्ल तिहुरण वच्छल्लय । निज्जिय दुज्जय मोहमल्ल दुल्ल लिय महोभर, वंभरणवाडि जिरिगद वीर संधु रिगसु सुहंकर ॥१॥ बंभरण खत्तिय वइस सुद्द अठ्ठारस बन्ना, सेव पवन्ना तुज्झ वीर न करंति प्रवन्ना । श्राव जत्त महूसवच्छ वित्था रइ निम्मल, नियम अभिगह सहिय नेवज्ज कुसुमफल ||२||
बंभरणवाउह पंथि वावि विसमा पासरणय, लग्गइ लोइ लोइ न टंक जत्त ते वज्ज समारणय ।
तुह माहप्पइ मीरण जेम गालिय ते सवि
तिम मह दुम्ह कठिण कम्म तु टालिसु भवि भवि ॥ २४ ॥
इय निम्भर भत्तिब्भरेण लेसिहि मय संय,
बंभरणवाडि जिरिंद वीर महिमा अब्भुब्भूय ।
दिउ मज्झ सामी सुप्पसन्न सिरि सोमसुंदर जस वहां तां तुह प्रारणा सिरिंमि गुरु रयरणसेहर रस ||२५|| इति श्री महावीर स्तोत्रं समाप्तम् । श्रीसोमदेवसूरिविरचितम् । श्री ॥ श्री ॥ शुभम्भवतु ॥ श्री
1765/8150 ( 1 ). युगादिदेवमहिम्नस्तोत्र
।। ६ ।। श्रीगणेशायनमः ॥ श्रीगुरुभ्योनमः ॥ श्रीगौतमायनमः ॥ महिम्न: पारंते परमलभमाना अपि विभो, भवन्ति स्तोतारः समवसूतिभूमौ समुदिता । यदिन्द्रायास्त्वां तज्जिनवृषभक्त्या स्तवयतो, ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः ॥