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(2) प्रति किस लिपि में लिखी गई है :- देवनागरी, मोड़ी, अरबी, गुजराती। 13) प्रति जीर्ण है या ठीक है या अपठनीय है इत्यादि सचना । (4) ग्रन्थ अद्यावधि मुद्रित हो चुका है अथवा आज तक अमुद्रित ही है ।
परन्तु इस सूची-पत्र में इन चार स्तम्भों को नहीं रखा है और इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है :
लगभग सारी की सारी प्रतियां कागज पर हैं और देवनागरी लिपि (अक्षर अधिकतर जैन मोड दिये हए) में लिखी हुई है अतः प्रलग स्तम्भ बनाकर सर्वत्र " का निशान लगाने में कुछ सार
नहीं प्रतीत होता। इसी प्रकार इस सूची-पत्र में उल्लेखित प्रायः सभी प्रतियों की अवस्था ठीक है, 1 पठनीय है अतः उसका भी स्वतन्त्र स्तम्भ बनाना उपयुक्त नहीं लगा । हाँ, कदाचित यदि कोई प्रति कागज पर नहीं है, अथवा देवनागरी लिपि में नहीं लिखी हुई है अथवा जीर्ण व अपठनीय है तो वैसा उल्लेख अवश्य "विशेष ज्ञातव्य" स्तम्भ में कर दिया है। विशेष उल्लेख के अभाव में पाठक निःशंक यह समझ लें कि प्रति देवनागरी लिपि में कागज पर लिखी हुई है और उसकी दशा ठीक है। तथा ग्रन्थों के अद्यावधि मुद्रित या अमुद्रित होने की जानकारी का संकलन करने में हम प्रसमर्थ रहे हैं। अत: अपूर्ण किंवा प्रसत्य जानकारी देने की अपेक्षा मौन रहना ही श्रेयस्कर समझा है। इसका , पता शोधार्थी या प्रकाशक हमारी अपेक्षा आसानी से लगा सकते हैं।
तथा इस बारे में एक और निवेदन है। अतिरिक्त परिशिष्ट तथा और कई स्तम्भ सूची-पत्र में जोड़े जा सकते हैं और उससे शोधार्थियों को अवश्य कुछ सुविधा हो जाती हैं । परन्तु साथ में हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि सूची-पत्र की अपनी मर्यादायें होती हैं और सूची-पत्र बनाने वाले की योग्यता भी असीमित नहीं होती। ग्रन्थ के बारे में आवश्यक सूचना सम्मेत सूची बना देना पर्याप्त है, बाकी सब ढेर सारी सामग्री पचाकर शोधार्थी को देने से उसमें प्रमाद पनपता है, अन्वेषण की जिज्ञासा कुण्ठित हो जाती है जो ज्ञान के विकास के लिये घातक सिद्ध होती है । सूची-पत्र कितना भी विस्तत हो, शोधार्थी के लिये तो असल प्रति या फोटो फिल्म प्रतिबिम्ब देखने के अलावा गत्यन्तर नहीं है, यह हमारा निश्चय मत है अन्यथा शोध-कार्य के प्रति न्याय नहीं होगा। केवल सूची बनाने वाले पर ही अधिक भार लादने से यह श्रम-साध्य कार्य और इतना गुरुतर हो जावेगा कि साधारण मनुष्य इस को हाथ में लेने से ही घबरा जावेगा - उसका उत्साह मारा जावेगा । सूची-पत्र सूचना है - जांच के लिये आमन्त्रण है - निर्णय का आधार नहीं।
परिशिष्ट संख्या 2 की सामग्री के बारे में हम आचार्य श्री जिनेन्द्र सूरिजी के कृतज्ञ है जिनके द्वारा संकलित संख्या वाचक शब्दकोश श्री हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रंथमाला लाखाबावल शांतिपुरी सौराष्ट्र से प्रकाशित हमा है। हस्तलिखित ग्रंथों में प्रतिलेखन संवत् प्रादि संख्यायें बहुधा सांकेतिक शब्दों में लिखी जाती है जैसे शशि=1 । संख्या सूचक उन सांकेतिक शब्दों की एक सूची हमारे प्रकाशन जिनदर्शन प्रतिष्ठान ग्रन्थ क्रमाङ्क १ जैसलमेर सूचीपत्र द्वितीय खण्ड में परिशिष्ट १ रूप में मुद्रित की गई थी लेकिन उक्तकोश में के जो शब्द हमारी पूर्व सूची में नहीं थे उन नये शब्दों को परिशिष्ट संख्या २ के भाग १ में मुद्रित कर रहे है तथा भारी पूर्व सूची में कई शब्द जो संख्यायें सूचित करते हैं उनसे अतिरिक्त संख्यायें आचार्य श्री के उपरोक्त कोश में सूचित की गई है अतएव परिशिष्ट संख्या २ के भाग २ में उन शब्दों के सभी संख्यार्थों की सम्मिलित सूची बनाकर मुद्रित कर रहे हैं प्रत्येक शब्द के आगे पहिले हमारी पूर्व सूची द्वारा सूचित संख्यार्थ लिखे गये है और फिर 11)निशान लगाकर आचार्य श्री के उपरोक्त कोश में सूचित संख्यार्थ लिखे गये है। इस प्रकार यह