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हस्तलिखित जैन साहित्य १.१.१६
उत्तराध्ययनसूत्र-दीपिका टीका, मु. विनयहस, सं., गद्य, वि. १५७२, आदि: उत्तराध्ययनस्येमा; अंति: (-),
(पू.वि. अध्ययन-३६ अपूर्ण तक है., वि. मूल कृति प्रतीक पाठ के रूप में दी गई है.) ६३१६३. (+) जंबूअध्ययन प्रकीर्णक सह टबार्थ, अपूर्ण, वि. १८५२, वैशाख कृष्ण, ३, श्रेष्ठ, पृ. ७३-१(७०)=७२,
ले.स्थल. विक्रमपुर, प्रले. मु. चंद्रभाण; अन्य. मु. वसंतराय ऋषि, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरें., जैदे., (२५.५४१०, ४४३८-४२). जंबूअध्ययन प्रकीर्णक, ग. पद्मसुंदर, प्रा., गद्य, आदि: तेणं कालेणं तेणं समए; अंति: से आराहगा भणिया,
उद्देशक-२१, (पू.वि. परिवार वालों की ओर से जंबूस्वामी को चारित्र ग्रहण करने से मना करने का प्रसंग अपूर्ण नहीं
जंबूअध्ययन प्रकीर्णक-टबार्थ , मा.गु., गद्य, आदि: ते काल चउथा आरानै; अंति: अर्थ संपूर्ण थयो. ६३१६४. (+#) आचारांगसूत्र-द्वितीय श्रुतस्कंध, संपूर्ण, वि. १८वी, श्रेष्ठ, पृ. ७०-१(६५*)+१(६४)=७०, प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरें. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२७४११, १२४३२-३८).
आचारांगसूत्र, आ. सुधर्मास्वामी, प्रा., प+ग., आदि: (-); अंति: विमुच्चति त्ति बेमि, ग्रं. २६४४, प्रतिपूर्ण. ६३१६६. (+#) औपपातिकसूत्र सह टबार्थ, संपूर्ण, वि. १७५९, भाद्रपद शुक्ल, १४, मध्यम, पृ. ६९, ले.स्थल. लोहियावट,
प्रले. मु. गुणमूर्ति (गुरु मु. सुमतिविमल, बृहत्खरतरगच्छ); गुपि.मु. सुमतिविमल (गुरु मु. विनयलाभ, बृहत्खरतरगच्छ); मु. विनयलाभ (गुरु उपा. विनयप्रमोदजी गणि, बृहत्खरतरगच्छ), प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. टिप्पण युक्त विशेष पाठ-संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२६.५४१०.५, ६x४५).
औपपातिकसूत्र, प्रा., पद्य, आदि: तेणं कालेणं० चंपा०; अंति: सुही सुहं पत्ता, सूत्र-४३, ग्रं. १६००.
औपपातिकसूत्र-टबार्थ, आ. पार्श्वचंद्रसूरि, मा.गु., गद्य, आदि: वंदित्वा श्रीजिन; अंति: सुख पाम्या थका. ६३१६७. (+#) दशवैकालिकसूत्र सह टबार्थ, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. ८९-२४(१ से २४)=६५, प्र.वि. संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२४४१०.५, ४४३१-३४). दशवैकालिकसूत्र, आ. शय्यंभवसूरि, प्रा., पद्य, वी. रवी, आदि: (-); अंति: मुच्चइ त्ति बेमि, अध्ययन-१०,
(पू.वि. अध्ययन-५ उद्देशक-१ गाथा १७ अपूर्ण से है., वि. चूलिका २)
दशवैकालिकसूत्र-टबार्थ *, मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: दुख हूं तु उक्तयइ, ग्रं. ३५००. ६३१६८.(+#) समवायांगसूत्र-वृत्ति, संपूर्ण, वि. १८वी, श्रेष्ठ, पृ. ६४, प्र.वि. संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२६.५४११, १९४४८). समवायांगसूत्र-वृत्ति, आ. अभयदेवसूरि , सं., गद्य, वि. ११२०, आदि: श्रीवर्द्धमानमानम्य; अंति: वृत्तितः समाप्तम्,
ग्रं. ३५७५. ६३१६९ (+) उत्तराध्ययनसूत्र सह टबार्थ, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. ६१, पू.वि. अंत के पत्र नहीं हैं., प्र.वि. संशोधित-टिप्पण युक्त विशेष पाठ-पदच्छेद सूचक लकीरें., जैदे., (२६४१०.५, ४४२७)..
उत्तराध्ययनसूत्र, मु. प्रत्येकबुद्ध, प्रा., प+ग., आदि: संजोगाविप्पमुक्कस्स; अंति: (-), (पू.वि. अध्ययन-११ तक है.)
उत्तराध्ययनसूत्र-टबार्थ *, मा.गु., गद्य, आदि: बाह्य अभ्यंतर संजोग; अंति: (-). ६३१७०. (#) जयानंदकेवलि चरित्र, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. १११-४३(१ से ४१,९५,१०७)=६८, पू.वि. बीच-बीच के पत्र हैं.,प्र.वि. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५.५४१०.५,१५४३६-३९). जयानंदकेवलि चरित्र, आ. मुनिसुंदरसूरि, सं., पद्य, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. सर्ग-७ अपूर्ण से १० अपूर्ण तक
बीच-बीच के पाठ हैं.) ६३१७१. (+#) ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र सह टबार्थ, अपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. ९१-२४(१ से २,४ से २४,४२*)=६७,
पू.वि. बीच-बीच के पत्र हैं.,प्र.वि. टिप्पण युक्त विशेष पाठ-संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५.५४११, ६x४३-४६). ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र, आ. सुधर्मास्वामी, प्रा., प+ग., आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. धारिणी रानी के दोहला की पूर्ति
हेतु चिंतित राजा श्रेणिक के प्रसंग अपूर्ण से कछुआ एवं श्रृंगाल की कथा अपूर्ण तक के बीच-बीच का पाठ है.)
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