SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 51
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कैलास श्रुतसागर ग्रंथ सूची जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, प्रा., गद्य, आदि: नमो अरिहंताणं० तेणं; अंति: उवदंसेइ त्ति बेमि, वक्षस्कार-७, ग्रं. ४१४६. ६३१५५. (+) आचारांगसूत्र सह टबार्थ प्रथम श्रुतस्कंध, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. ११८+१(६७)=११९, पू.वि. अंत के पत्र नहीं हैं., प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरें., जैदे., (२६४११, ४४२९). आचारांगसूत्र , आ. सुधर्मास्वामी, प्रा., प+ग., आदि: सुयं मे आउसं० इहमेगे; अंति: (-), (प्रतिअपूर्ण, पू.वि. श्रुतस्कंध-१, अध्ययन-८, उद्देशक-४, गाथा-१६ अपूर्ण तक है.) आचारांगसूत्र-टबार्थ, मा.गु., गद्य, आदि: सूर्य० सांभल्यो मे० म; अंति: (-), प्रतिअपूर्ण. ६३१५६. (+#) आचारांगसूत्र सह टबार्थ प्रथम श्रुतस्कंध, संपूर्ण, वि. १८५७, मध्यम, पृ. ९७, प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरें-टिप्पण युक्त विशेष पाठ. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, प्र.ले.श्लो. (११५६) यादृशं पुस्तकं द्रष्ट्वा, जैदे., (२४.५४१०.५, ४४३०-३४). आचारांगसूत्र, आ. सुधर्मास्वामी, प्रा., प+ग., आदि: सुयं मे आउसं तेण; अंति: (-), (प्रतिपूर्ण, वि. १८५७, ज्येष्ठ __ अधिकमास शुक्ल, ९, शुक्रवार) आचारांगसूत्र-टबार्थ, मा.गु., गद्य, आदि: प्रथम अंग ते आचारांग; अंति: (-), (प्रतिपूर्ण, वि. १८५७, ज्येष्ठ अधिकमास शुक्ल, १०, सोमवार) ६३१५७. (+#) शांतिनाथचरित्र, अपूर्ण, वि. १७वी, श्रेष्ठ, पृ. ९८-१(४५)=९७, प्रले. ग. दयासागर (गुरु ग. महिमराज, खरतरगच्छ); गुपि.ग. महिमराज (गुरु आ. सागरचंद्रसूरि, खरतरगच्छ); आ. सागरचंद्रसूरि (खरतरगच्छ), प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरे-संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२७४११, १७४५०-५५). शांतिनाथचरित, आ. माणिक्यचंद्रसूरि, सं., पद्य, आदि: तेपि ब्रह्मादयो यस्य; अंति: माणिक्यसूरि० भवेदिह, सर्ग-८, श्लोक-५४५८, ग्रं. ५५७४, (पू.वि. सर्ग-३ श्लोक ७५१ अपूर्ण से ८०८ अपूर्ण तक नहीं है.) ६३१५८. (#) हनूमच्चरित्र, संपूर्ण, वि. १६३५, पौष शुक्ल, १, सोमवार, मध्यम, पृ. ८४, अन्य. श्राव. देवीचंद, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. विक्रम संवत १५७८ में लिखित प्रत से प्रतिलिपि की गई हो ऐसा प्रतीत होता है. विक्रम संवत १८४२ में जेसलमेरनगर में देवीचंदजी द्वारा यह प्रति देने का उल्लेख मिलता है., अक्षरों की स्याही फैल गयी है, प्र.ले.श्लो. (११५६) यादृशं पुस्तकं द्रष्ट्वा, जैदे., (२६.५४१०.५, ११४३३-३६). । हनूमच्चरित्र, श्राव. अजित ब्रह्मचारी, सं., पद्य, आदि: सद्दोधसिंधु चंद्रायस; अंति: हनूमच्चरित्रे शुभे, सर्ग-१२, श्लोक-२०००. ६३१५९. (#) उपदेशमालाकथा संग्रह, संपूर्ण, वि. १९वी, श्रेष्ठ, पृ. ७९+१(२६)=८०, प्र.वि. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२३.५४१०.५, १४४२७-३६). उपदेशमाला कथा संग्रह, प्रा.,मा.गु., पद्य, आदि: वंदित्वावीर जिणं; अंति: (-), (अपूर्ण, पू.वि. प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण., कथा ६३ अपूर्ण तक लिखा है.) ६३१६०. (+#) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र सह वृंदारूवृत्ति, पूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. ८०-१(२)=७९, प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरें-संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५.५४१०.५, १३४३५-४४). श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र संग्रह , संबद्ध, प्रा.,मा.गु., प+ग., आदि: नमो अरिह० सव्वसाहूण; अंति: वत्तियागारेण वोसिरइ, (पू.वि. नमस्कार मंत्र का अंतिम पद नहीं है.) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र-वंदारू टीका, आ. देवेंद्रसूरि, सं., गद्य, आदि: वृंदारुवृंदारकवृंदवं; अंति: वृत्तितोवरचूर्णितश्च, ग्रं. २७२०. ६३१६१. दशवैकालिकसूत्र सह टबार्थ, संपूर्ण, वि. २०वी, श्रेष्ठ, पृ. ७३, प्र.ले.श्लो. (९३६) यादृसं पूस्तकं दृष्ट्वा, दे., (२४४१०.५, २-५४३०-३५). दशवैकालिकसूत्र, आ. शय्यंभवसूरि, प्रा., पद्य, वी. रवी, आदि: धम्मो मंगलमुक्किट्ठ; अंति: अपुणागमं गइ त्तिबेमि, अध्ययन-१०, (वि. चूलिका २) दशवैकालिकसूत्र-टबार्थ*मा.गु., गद्य, आदि: श्रीजिनधर्म केह; अंति: तुज प्रतै कझै छई. ६३१६२. (#) उत्तराध्यायन की वृत्ति, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ.७८, पू.वि. अंत के पत्र नहीं हैं.,प्र.वि. मूल पाठ का अंश खंडित है, अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२६४११, १७४३९-४५). For Private and Personal Use Only
SR No.018062
Book TitleKailas Shrutasagar Granthsuchi Vol 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
PublisherMahavir Jain Aradhana Kendra Koba
Publication Year2013
Total Pages612
LanguageHindi
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy