________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
कैलास श्रुतसागर ग्रंथ सूची ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र-टबार्थ *, मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: (-). ६३१७२. (+#) कल्पसूत्र का अंतर्वाच्य सह टबार्थ, अपूर्ण, वि. १९वी, श्रेष्ठ, पृ. ६१, पृ.वि. अंत के पत्र नहीं हैं., प्र.वि. संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२६.५४११, ८४४६-५१).
कल्पसूत्र-अंतर्वाच्य, सं., गद्य, आदि: कल्याणानि समुल्लसंति; अंति: (-), (पू.वि. "एष सचिरं छाया करो" तक का पाठ
कल्पसूत्र-अंतर्वाच्य का टबार्थ, मा.गु., गद्य, आदि: कल्याणना समूह समुल्ल; अंति: (-). ६३१७३. (+#) कल्पसूत्र सह टबार्थ, संपूर्ण, वि. १८वी, श्रेष्ठ, पृ. ६३, प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरे-संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५४१०.५, ७४४६-४९). कल्पसूत्र, आ. भद्रबाहस्वामी, प्रा., गद्य, आदि: नमो अरिहंताणं नमो; अंति: उवदंसेइ त्ति बेमि, व्याख्यान-९,
ग्रं. १२१६.
कल्पसूत्र-टबार्थ *, मा.गु., गद्य, आदि: अरिहंतनइ नमस्कार सिद; अंति: भद्रबाहुस्वामि कह्यो. ६३१७४. (+#) त्रिवर्णाचार निरूपक, अपूर्ण, वि. १९वी, मध्यम, पृ. २२५-२४(१ से ५,१० से २१,२०२ से २०४,२०६ से २०७,२१२ से २१३)=२०१, प्र.वि. संशोधित. मूल पाठ का अंश खंडित है, जैदे., (२६४११, ८x२५). त्रिवर्णाचार प्ररूपण, मु. सोमसेन, सं., पद्य, वि. १६६७, आदिः (-); अंति: श्रोतुः सुखप्रदम, अध्याय-१३,
श्लोक-२७००, (पू.वि. अध्याय-१ श्लोक ३० अपूर्ण से बीच-बीच के पाठ हैं.) ६३१७५. (+) आवश्यकसूत्र सह टबार्थ, अपूर्ण, वि. १९वी, श्रेष्ठ, पृ. ६३-१(१)=६२, प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरे-संशोधित. कुल ग्रं. २०००, जैदे., (२५.५४१०.५, ४४२६-२९).
आवश्यकसूत्र, प्रा., प+ग., आदि: (-); अंति: तिगिच्छ गुणधारणा चेव, अध्ययन-६, सूत्र-१०५,
(पू.वि. अध्ययन-१वंदनापाठ अपूर्ण से है.)
आवश्यकसूत्र-टबार्थ*, मा.गु., गद्य, आदि: (-); अंति: ए छठो आवश्यक. ६३१७६. (#) उत्तराध्ययनसूत्र सह टीका, अपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. २७०-२१८(१ से १७०,१९५,२११ से २५५,२५८ से
२५९)=५२, पू.वि. बीच-बीच के पत्र हैं.,प्र.वि. अक्षर पत्रों पर आमने-सामने छप गए हैं, अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२६४११, १५४५१-५७).
उत्तराध्ययनसूत्र, मु. प्रत्येकबुद्ध, प्रा., प+ग., आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. अध्ययन-१६ अपूर्ण से ३५ अपूर्ण तक के
बीच-बीच के पाठ हैं.)
उत्तराध्ययनसूत्र-सुखबोधा टीका, आ. नेमिचंद्रसूरि, सं., गद्य, वि. ११२९, आदि: (-); अंति: (-). ६३१७७. (+) औपपातिकसूत्र सह वृत्ति व विप्रजैनमत श्लोक, संपूर्ण, वि. १७वी, मध्यम, पृ. ५२, कुल पे. २, प्रले.मु. लालचंद
(गुरु ग. भावरंग); गुपि. ग. भावरंग (गुरु पंन्या. स्वर्णप्रभ वाचक); पंन्या. स्वर्णप्रभ वाचक, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. पंचपाठ-पदच्छेद सूचक लकीरें-संशोधित., प्र.ले.श्लो. (४५९) मंगलं लेखकस्यापि, (६४५) यादृशं पुस्तके दृष्ट्वा, (७७३) अदृष्टिदोषान् मतिविभ्रमाद्वा, जैदे., (२६.५४११, १०४३२-३६). १. पे. नाम. औपपातिकसूत्र सह वृत्ति, पृ. १आ-५२अ, संपूर्ण.
औपपातिकसूत्र, प्रा., पद्य, आदि: तेणं कालेणं० चंपा०; अंति: सुही सुहं पत्ता, सूत्र-४३, ग्रं. १६००. औपपातिकसूत्र-टीका, आ. अभयदेवसूरि, सं., गद्य, आदि: श्रीवर्द्धमानमानम्य; अंति: संशोधिता चेयमिति,
ग्रं. ३१२५. २. पे. नाम. विप्रजैनमत खंडन श्लोक, पृ. ५२अ, संपूर्ण..
विप्रजैनमत खंडनमंडन श्लोक, सं., पद्य, आदि: नो वापी नैव कूपो न च; अंति: प्राणेषु दयां कृथा, श्लोक-६. ६३१७८. (#) प्रश्नोत्तररत्नमाला सह वृत्ति, अपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. ६१-३(१,४१ से ४२)=५८, पू.वि. बीच-बीच के पत्र हैं., प्र.वि. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५.५४१०.५, १६४५०-५५).
प्रश्नोत्तररत्नमाला, आ. विमलसूरि, सं., पद्य, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. श्लोक-२ से २४ तक बीच-बीच के पाठ
For Private and Personal Use Only