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fol. 1b
Jaina Literature and Philosophy
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॥ ॐ ॥ श्रीजिनाय नमः ॥ दूहा ॥
प्रणमुं परम पुनीत नर । वरधमांन जिनदेव | लोकालोकप्रकास त । करै समकिती सेव ॥ १ ॥
तस गन्धर गोतम प्रमुष । धरमवंत धनपात । तिन सेवई भविजन सदा । विलै मोहतमराति ॥ २ ॥ चौपाई ॥
afares यह कनौं प्याल । हसौ मती बुधिवंत विसाल । रामजानकी गुन विसंतर। कहै कौंन कविवचनविचार ॥ ३ ॥
देव धरम गुरुकौं सिरनांइ । कहै चंदछत्तम जग मांइ । परउपगारी परम पवित्त । सज्जनभावभगतिकै चित्त ॥ ४ ॥
समकरि आदि अंत अप्यरा । असति आदि अप्यर करि घरा । ए समरुं परग्यादातार । सीतचरित चितकरहु ( ? ) उदार ॥ ५ ॥ etc.
fol. 110a
संवत सतरै तेरोतरै ( १७१३) । मगसिर ग्रंथ समापति करै । सुकल पक्ष तिथि है पंचमी । आपौ जाण कुमति जिण वमी ॥ १८ ॥ जिणि अपनी निज रिधि पहचाणी । सो चिनमूरति आतमग्यांनी । प्रगट सहज सुधारस होई । घारसमै वारस नहि कोई ॥ १९ ॥
कथा सुणी श्रवणे अवधार । रही याद सों लिषी विचार । भूल चूकया मैं जो भई । और वनाइ नई कछु कई ॥ २० ॥ सोमत विहरौ तुम बुधवंत । कयौ बहुत विघटै जु सिधंत । इन सव पसरधीमत करौ । वाणीकस हिरदामै धरौ ॥ २१ ॥
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उत्तम पुरुष तणी ए वान । भयमुकति न जिसव परजात । जो सब राग दोष पर हरे । मुकतिवधूकुं वह नर वरै ॥ २२ ॥ राग दोष त्यागे जो जीव । अविनासी सुष लहै सदीव |
सुष कौकबहूं नही अंत । त्र्यांनमांति देष्यों भगवंत ।। २३ ।। जिण भाष्या निजत्रांणी मांहि । सहजै राग दोष कछु नहि । सुण गुण चित जो राम माघ । थिति पूगाविन नाहि उषा ( ? ) व ॥ २४ ॥
कालिषेत उदिमभवभाव । हरै नहीं करि कोटि उपाव । पांचौ समवाइ सठीक । कारिज होइ लोह डैलीक ॥ २५ ॥
इति श्रीसीताचरित्र संपूर्ण ॥ संवत् १७९० वर्षे अर्कवासवाद ( ? )पितं लालचंदजीति श्रीरस्तु श्री ।।
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