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Jaina Literature and Philosophy [428. धरममरतिसूरीसनि पार्टि प्रगव्यो भाण विधननिवारण वल्लहो प्रणमुं चतुर सुजाण ४ प्रणमुं गुणमुरति गुरु वाचक लीलावंत विद्याबलि गिरुउ सदा सागरस( म) गाजंतु(त) ५ प्रीयंकर पुण्येसरु तेह तणु संबंध
रसकारी रचं भलं सरस सा सुगंध ६ etc. ~ fol. 6' इति श्रीउपसर्गहरस्तोत्रमहा(का व्ये श्रीप्रियंकरकथाप्रबंध
प्रथम खंड समाप्तः ॥ Ends.--- fol. 18
संवत सोल छन्नूइं (१६९६) मास विमल वैशाष जिणि रति अंबइ उपजइ सुंदर मिठी शाष १६ कु. निरमल नवमी दिन थयउ संपतिकरण संपूर सरस घणु ‘साचोर'मां चउथी षंड चतूर १७ कु. 'मेरु' गिरि जां महीतलि जां रणायरतोय वंदर वीजां उगमइ तां लगि प्रत पुलोय १८ कु. भणतां मीठी भूसिरें जिम साकरनो घोल सांभलतां संपति दीइ आपइ लीलकलोल १९ कु. सर्वगाथा २३८ सर्वश्लोकसंख्या ३२०
इति श्रीप्रियंकरराजारासः संपूर्णः श्लोकसंख्या ८३१ चतुःषंडगाथा
७८० इति संपूर्णः ॥ श्रीः Reference. This work is named as faitatag in Jaina Gūrjara
Kavio ( Vol. III, pt. I, p. 1045). Extracts are given in it on pp. 1045-1046 from an incomplete Ms.
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प्रियमेलकचतुष्पदी 25 (प्रियमेलकचोपाइ)
[सिंहलसुतचोपाइ ] No. 429
Priyamelakacatuspadi ( Priyamelakacopai ) [ Simhalasutacopai ]
1486.
1887-91.
Size.- 94 in. by 4t in.
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