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________________ I 16 CLOSING COLOPHON OPENING Catalogue of Sanskrit & Prakrit Manuscripts Pt. III-B ( Appendix) श्री गणेशाय नमः । क्षणमिष्टमदत्वैव त्वन्नाम जपतो मम । शिवे कथमपर्णेति रूढिभारायते न ते ॥ १॥ श्रीचण्डीस्तव मंत्रस्थविभागः सप्तभिः शतैः । कात्यायनादितंत्रेषु त्रिषु त्रेधा प्रकीर्तितः ॥ २॥ चण्डीस्तव विभागांशो बालोप्युत्कंठितो यदि । स्यादनेन निबन्धेन शतश्लोकेन पंडितः ॥ १०२ ॥ इति श्रीधर गंभीरराय सोमसुतः सुतः । भारत्यधाच्छतश्लोकी काशीस्थो वह्नञ्चोऽग्निचित् ॥ १०२ ॥ इति शतश्लोकी मूलम् । CLOSING Jain Education International शिवराम हनूमता ॥ इति श्रीसि (शि) व रामकृतशतश्लोकीटीका समाप्ता । सम्वत् १८२४ शाके १६८६ वैशाख शुक्ल ४ शनो लिखितमिदं शैवोपनामकभानुदेवात्मज नंदरामेण सप्तशती मंत्रविभागात्मकं पुस्तकं स्वार्थं परार्थं चेति ॥ शुभम् ॥ 6464. शृङ्गारतिलकं, सटीकम् ॥ श्री गणेशाय नमः ॥ श्रथ पंडितदुर्गादत्तकृत शृंगारतिलक भाषाटीका लिख्यते जिस सरोवर में दोनों भुजा हैं सोई मृणाल है, मुख ही कमल है, शोभासहित जल हो लीला है, श्रोणि अर्थात् कटि ही तीर्थशिला है, भाँखें मछली हैं, बार ही सेवार हैं, स्तन ही चकवा चकईका जोड़ा है, ऐसा स्त्री के शरीर रूपी सरोवर को विधाता ने अच्छा बनाया है, कामबारण की अग्नि से भुजे भये लोग हैं तिन्हके नहाने को, मृणा...." बाहू द्वौ च मृणालमास्थ कमलं लावण्यलीलाजलं श्रोणी तीर्थशिला च नेत्रशकरो धम्मिल्लशैवालकम् । कान्तायाः स्वनचक्रवाकयुगलं कन्दर्पबाणानले - दग्धानामवगाहनाय विधिना रम्यं सरो निर्मितम् ॥ १ ॥ सत्यं ब्रवीषि मकरध्वजबारणपीडनादहं त्वदर्पितदृशा परिचिन्तयामि । दासोऽयं मे विघटितस्तव तुल्यरूपो, सोऽयं भवेन्नहि भवेदिति मे वितर्कः ॥ ३१ ॥ इति कालिदासकृत गारतिलकः । परकीया नायका प्रति नायक का अनादर वाक्य - कमर पर पानी का घड़ा लिये हुए देखती है; सुहावनी अधखुली आंखों से मेरी तरफ मुंह करके । तेरे भाग्य लायक श्रीर For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.018015
Book TitleCatalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts Part 3 B
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherRajasthan Oriental Research Institute Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages818
LanguageEnglish
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size11 MB
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