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________________ 65 Rajasthan Oriental Research Institute, Jodhpur (Jodhpur Collection) अभेद जतायबेकों चिच्छक्ति की स्तुति द्वारा मंत्रोद्धारादिवर्णमानापूर्वक स्तुति करते हैं अथ श्री सुंदरलहरय्यरिंभः ॥ काव्य ॥ CLOSING(w. CLOSING (Ct. शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं, न चेदेवं देवो न खलु कुशल: स्पंदितुमपि । अतस्त्वामाराध्यां हरिहर विरंच्यादिभिरपि, प्रणन्तुं स्तोतुं वा कथमकृतपुण्यः प्रभवति ॥ १ ॥ टीका - जन्म मरण अनेक क्लेश संचय करि बंध रहे, ऐसे तापत्रय रूपी मंगलकर रहित ऐसे परमात्मा सदा मंगलरूप हैं, ताकौं कहिये शिव । क्योंकि चिद्विलाससमुल्लसित परमानंद रूप है तासों ऊ कहै शिव है, सो कर्त्तुमकतु अन्यथा कत्तु ऐसी जो शक्ति कहिये निज सामर्थ्य विशेष स्फूर्ति ता करि जद युक्त होत हैं तदि प्रभु हो । अर्थात् सर्वोत्कृष्ट होतु है । यौं न होय तो कछु नाहीं क्योंकि ताशक्ति विनु किंचिन्मात्र चलनहू कौं समर्थ नाहीं । ऊह देव देदीप्यमान है । परंतु कछु करि सकें नाहीं क्योंकि समस्त क्रियामूल शक्ति ही है यातें य्या कारणते तो कों प्रणाम हू करिवे कों अरु तेरी स्तुति करिवे कों प्रकृतपुण्य पुरुष है सो समर्थ नाही अर्थात् जन्मांतर के बड़े सुकृत सें तेरे प्रणामादि में पुरुष की प्रवृत्ति होय क्योंकि तू तो हरिहरविरंच्यादि करि उपासबे जोग्य है, श्रीर की कहा सामर्थ्य सो तेरी उपा सना करें, हरिहरविरंच्यादिभिः, इहां श्रादय शब्द करि के मनुचंद्रादि जानिये सो कह्यौ है मानसोल्लास नाम ग्रंथ तद्वचनं - विष्णुः शिवः सुरज्येष्ठो मनुश्चंद्रो धनाधिपः । लोपामुद्रा तथाऽगस्त्यः स्कन्दः कुसुमसायकः || १ || सुराधीशो रोहिणेयो दत्तात्रेयो महामुनिः । दुर्वासा इति विख्याता एते मुख्या उपासका: ॥२॥ हरिहरविरंच्यादि तेरी उपासना कहा करें हैं कि अपने सृष्टि को अधिकार तेरे ही बल तें करें है, सब कारज मैं तू शक्ति ही मुख्य है शक्ति विना कछु होय नाही इत्यादि......... Jain Education International प्रदीपज्वालाभिदिवस करनीराजनविधिः, सुधासूतेश्चंद्रोपलजललवे रघंघटना | स्वकीय रम्भोभिः सलिलनिधिसौहित्यकरणं त्वदीयाभिर्वाग्भिस्तव जननि वाचां स्तुतिरियम् ॥ १०३ ॥ हे जननि जैसे सूर्य की भारती करतु है तहां दीपन की ज्वाला सन्मुख करतु है, ऊह सूर्य तो तेजनिधान है ताको श्रंस अर्गानि को दीपक तासों जैसे भारती करें, अरु जैसे चद्रकांतमरिण तं चंद्रमा के जोग तें जल प्रगटे, ऊ जल तें चंद्रमाकों अर्धं दीजे, समुद्र के जलसों समुद्र को तर्पण करिये 'समुद्रास्तृष्यंतु' यों कहि के तर्पण करिये, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.018015
Book TitleCatalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts Part 3 B
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherRajasthan Oriental Research Institute Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages818
LanguageEnglish
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size11 MB
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