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Catalogue of Sanskrit &Prakrit Manuscripts Pt. II-B (Appendix)
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पापौघः परिदह्यतां भवमुखे दोषो न संधीयता
मात्मेच्छा व्यवसीयतां निजगृहात्त र्णं विनिर्गम्यताम् ॥१।। टीका०- श्रीभगवान् शंकराचार्यजी आपके शिष्यन को पांच सूलोक पांच रतन है । वेद के पठे विन सुरूप ग्यान उपजै नही ओर वेद मैं कहे जे कर्म तिनकू नित्य ही धारणां करी। कर्म करे विन मन सुध नहीं होइ अोर या मन कौं परमेसुरजी विर्षे लगावो। परमेसुर मै मन लगाये विनां संसार ते जीव तरै नहीं। मन करि के हु कामनां रूपी कर्म मै बुद्धि कू तजो। कामनारूपी कर्म ते संसार वढे है । xxxxxxx ओर यह घर है सो बंधन को दातार है सो याते विगिही निकसौ । यामै बंधे पीछे छूटनों नहीं होयगो ।।१।। मूल- ऐकान्तिकसुखमास्थितां परतरे चेत: समाधीयतां,
पूर्णात्मा हि समीक्षतां जगदिदं सम्बाधितं पश्यताम् । प्राक्कर्मापि विलाप्यतां चितबलान्नाप्युत्तरं श्लिष्यतां,
__ प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परं ब्रह्मात्मना स्थीयताम् ॥५॥ टीका० शि०- एकान्त मैं आसन राखनौ, सुखपूर्वक परब्रह्म परमेसुर विषै मनकू अछी तरै लगावो । सब विश्व में आत्म पूर्ण है यह विचारो ओर यह जगत् नाशवान है यह देखत रहौ । पुराचीन कर्मन कू ग्यांन के बल ते छीन करो। चेतना शक्ति केवल ते कोई ते उत्तर प्रत्युत्तर मति करौ और प्रारब्ध कर्मन के फल कौं भोगी या
के अनन्तर परब्रह्म परमात्मा के सुरूप कौं विचार करिकै स्थिर होउगे ॥५॥ शि० COLOPHON:
इति शंकराचार्यकृत पंचरत्नस्तोत्रकी भाषा समाप्ता शुभं भूयात् । Post.Colophonic:
भवानीशंकरेण लिखितं स्वपठनार्थं शिवार्थ वा०शि० संवत् १९१३ का 3502. पराङ कुश-पञ्चविंशतिस्तोत्रम्
श्रीमते रामानुजाय नमः । यः पराकुशमुनि प्रसादयन्, पञ्चविंशतिमयं स्तुति व्यधात् । तं वाधूलकुलभूषणं गुणैर्भूषितं वरददेशिकं भजे ॥१॥ श्रीमत्परा शनिरंकुशतत्वबोधं,
वात्सल्यपूर्णकरुणापरिणामरूपम् । सौशील्यसागरमनन्तगुणाकरं त्वां
संसारतापहरणं शरणं वृणेऽहम् ।।२।। अत्राप्यमुत्र करणत्रितयप्रवृत्त्या,
त्वत्पादपङ्कजजुषां विदुषां प्रसादम् । नित्यं लभेमहि न चान्यदपेक्षितन्नः,
प्रत्यग् न केसरपरिष्कृतकारिसूनो ।।२।।
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