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________________ Rajasthan Oriental Research Institute (Jodhpur Collection) CLOSING: COLOPHON : OPENING : Jain Education International कवत श्लोक छन्द गीतका , श्रुतीनां सर्वस्वं स्वकृतमथ मूर्ति स्वमनसा स्वधासौन्दर्य ते सलिलमशिवं नः शमयतु ॥ १ ॥ सकल महि कौ पर पुररण सौभाज्ञ यहि वेद और पुरानन को सरवस सार है । लीला हि करके जीन अखिल रची है जग ऐसे त्रपुरारीजु को वैभव उदार है देवन को स्वकृत प्रमोघ प्रघटी है सहि स्वधा नै सरिस सो तौ सोभा को श्रगार हैं । सलिल तुम्हारी गंग मंगल हमारी नित पादप अमंगल को काटन कुठार है ॥ १ ॥ इमां पीयूषलहरों जगन्नाथेन निर्मिताम् । यः पठेत् तस्य सर्वत्र जायन्ते जयसम्पदे (दः) ।। ५३ ।। अभिराम नाम पीयूषलहरि चलत मंगल की भरी । यह जगन्नाथ उदार पंडतराज नै निर्मल करी । एक दो समिश्र उदाम सब गुरणग्राम रूप स्वराम नै । यह भात उर अभिलाष करि श्रायुष दइ सुखधाम नै ॥ ५३॥ श्री गंगादेव्यै नमः यह देववानी सहसत प्रतिकठिन समझ न आवहि । मतमंद नर कल काल के किह भात अर्थ लगावहि । यात अर्थ अनकूल याको जगत हित मन लायकै । समझ सकल नर भाष ता मै रच्यो ग्रंथ वषान के ॥ ५४ ॥ यह धार आयुष सिस गुर कि बुध नीज अनुसारहि । बलदेव वैस्य खण्डेलवाल विचार जान भाषा कहि || जो पछे हि हि छावहि और सुनहि श्रवण करावहि ते अनुग्रह गंग कि जय संपदा नर पावहि ॥ ५६ ॥ इति श्रीपंडतराज जगन्नाथ वसूली कृत गंगालहरि संपूर्ण और गंगालहरि भाषा कवत संपूर्ण । 3413. गङ्गालहरी सटीका श्रीगणेशाय नमः | श्रीमच्छ ुतिशिरोरत्ननीराजितपदाम्बुजाम् । बुद्धियां जडबुद्धीनां वन्दे गङ्गातरङ्गिणीम् ॥ १ ॥ 31 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.018013
Book TitleCatalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts Part 2 B
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherRajasthan Oriental Research Institute Jodhpur
Publication Year1963
Total Pages646
LanguageEnglish
ClassificationCatalogue & Catalogue
File Size9 MB
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