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[ ३१ ] इति श्रीभगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे परमार्थनिर्णयो नाम अष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ।।
इति श्रीभगवद्गीता-भाषा-प्राकृत सम्पूर्ण | समाप्तोऽयम् । संवत् १८०३ रा वर्षे । शाके १६६८ प्रवर्त्तमाने मासोत्तममासे कार्तिकमासे शुक्लपक्षे सप्तमी तिथौ भुगुवासरे । पण्डित प्र० श्री५ नैणसीजी तत्शिष्य पं०प्र० श्री मोटाजी तत्शिष्य पं० कुशलचन्देन लिपिकृता । श्रीतलवाड़ाग्राममध्ये ।
589. भगवद्गीता (सटीका)
___ ॐ श्रीगणेशाय नमः। ॐ अस्य श्रीभगवद्गीता मालामन्त्रस्य श्रीभगवान् वेदव्यास ऋषिः, अनुष्टुप्छन्दः श्रीकृष्णपरमात्मा देवता, अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे इति बीजम् ।
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धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में, मिले युद्ध के साज। संजय मो सुत पांडवनि, कीने कैसे काज ॥ १ ॥ पाण्डव सेना व्यूह लखि, दुर्योधन दिग प्राय । निज प्राचार्य द्रोन सों बोले ऐसो भाय ॥ २ ॥ यह गीता अद्भ त रन, श्रीमुख कियो वख्यान । वार वार निद्धरि किय, पराभक्ति निज ज्ञान ।। ७६ ॥ भक्त तस्य श्रीकृष्णजु, यह कीनो निरधार । करै भक्ति इच्छा यहै, सवै वेद को सार ।। ८० ।। गीता दिन प्रति उच्चरै, सदा सुद्ध जग मांहि । मनसा वाचा कर्मणा, ताहि सम कोउ नाहि ॥ ८१ ।। जो कोउ चाहे भोते, कृष्ण कवल-दग पास । और सकल श्रमु छाडिक, (क)रि गीता अभ्यास ॥ ८२ ।। भगती ही ता जो कोउ, पढे सुने जु चित लाय । पावै भक्ति अखंड सो, श्रीहरिदास साहाय ।। ८३ ।। जब लगि संश्रित भानकी, ताप तपत सब देस ।
दृष्टि परै जब लगि नहि, हरि-गीता-राकेस ।। ८४ ।। संवत् १८ ७ मिती वैसाषवदि ६ नवम्यायां वार वस्पतवारे लिखायते जोसि दयाराम श्रीगोपीनाथजी का मदर (मंदिर) मध्ये ।
590. भगवद्गीता (सार्थ) xxxxxx धारी रूपीयां तृण केहे छे । ते । बीजा तृण उपजावे तहां भूमि खेडे पछे वावे । पछे इन्द्र सींचे। देहधारी रूपीयां येह तृण तेहने को वावनाहार नथी ते उपजवा प्रते भगवंत नी ईछा ते कारण एक थको अनेक ने
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