________________
प्रशस्त्यादिसंग्रहः ।
[३५९ ईण अनुक्रमि मुनि रतनगणि उवज्झराय पणमेसु
येर रयणाधिक पवन्नि करमकुत्तर पमुह असेस । मण तण वयण एकति करी जं वंदइ नरनारि रिद्धि वृद्धि मंगल विउल सुह पामइं ते सुविचार ॥११॥ ॥ इति श्रीगुरुनामावली समाप्ता ।।
[5653] पणमवि चउवीस वि जिणचलण, रिद्धि वृद्धि सवि मंगलकरण । तपागच्छ तिहूयणि जयवंत, गायसु गुरु गुरूया गुणवंत ॥१॥ चउवीससु जिणेसरु वीरु, पाप ताप दम(वड)वानल नीर । जिणसासण केरु शणगारु, पढम सीसु गोयम गणधारु ॥२॥ मुहमसामि गणधर पांचमउ, तस पयकमल सहू कोइ नमउ । जेह थकइ जिणशासणि विस्तार, मुणिवर विहरई भरह मझारि ॥३॥ जंबूसामि भगूं गुरुराय, मोह तणउ जिणि फेडिउ ठाउ । केवलसिरि पटराणी हूई, जेहे विण एकू क्षण नवि रही ॥४॥ प्रभवसामि सिज्जंभवसूरि, यशोभद्र दीठउं दारिद्र दूरि । चउथा सूरीसर संभूतिविजय नमंतां सुखसंभूति ॥५॥ भद्रबाहुसामी बलिवंत, लिभद्र हूउ जिइवंत ।। छइ ए हूआ श्रुतकेवली, मोहमयण मूक्या निर्दली ॥६॥ अज्जमहागिरी अञ्जसुहत्थि, वयरसामि सम कोइ न अस्थि । झोली पउढ्या लागु रंगु, अवडाव्यां अग्यारइ अंग ॥७॥ वयरसीस, शाखा च्यारि, चंद्र नागेंद्र निवृत्ति अवधारी । विद्याधर पण चउत्थी होइ, जिणसासणि जाणइ सहु कोइ ॥८॥ ईण अनुक्रमि मुणिवर बहूत, संख न जाणुं केवलि रहित । चंद्रगच्छि गुरु हूया भूरि, पहिलउं नमिसु धनेसरसूरि ।।९॥ चैत्रइ पाटणि हुई देसना, देगंबर प्रतिबोध्या धणा । ईण अवदाति जगि अभिराम, चैत्रीवालगच्छ रहई नामु ॥१०॥ ह्या भुवनचंदसूरिंद, जस पय वंदइ तीस नरिंद । बार भेदि तप निरमलि काय, वांदू देवभद्रगणि उवज्झाय ॥११॥ सूधा आगम हीयडइ धरी, सामाचारी जीणि उद्धरी। तपागच्छनउ थापिउ पाटु, सवि कहिरई देषाडी वात ॥१२॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org