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अन्तः
प्रशस्त्यादिसंग्रहः । छंदालंकारविवज्जियं पि जइविरहियं पि विरसं पि । जे नियमइमइविहवेण कुणंति कव्वं गुणग्घवियं ॥१५॥ सिरिवद्धमाणसूरीहिं विरइयाए मणोरमकहाए । मोक्खफलविरइलाहावसरो तुरिओ परिसमत्तो ॥१॥ संपइ कहा समप्पइ सुबोहसदेहिं विरइया एसा । थंभणयकयनिवासो पासो महमंगलं कुणउ ॥२॥ छंदाणुवित्तिरहिया निरलंकारा सुवण्णयविमुक्का । दुग्गयगामीणसुय व्व मह कहा लक्रवणविहुणा ॥३॥ तह वि सुयणेहिं गहिया सरलसहावेहिं दोसविमुहेहिं । एसा वि विराइस्सइ दुग्गयदुहियठा गगया ॥४॥ आसि जयपायडजसो सीसो सिरि बदमाणसामिस्स । पंचमगणहरदेवो चोदसपुव्वी सुहम्मो त्ति ॥५॥ तस्स य सीसो जंबू तओ वि पभवो पहाणगुणपभवो । मणगपिया परमरिसी तत्तो सेज्जंभवो भयवं ॥६॥ एवं सूरीण परंपराए ता जाव अजवइरो त्ति । साहाए तस्स विमले चंदकुले चंदसमलेसो ॥७॥ अप्पडिबद्धविहारो सूरी सोमो व्व जणमणाणंदो । आसि सिरिवद्रमाणो पवड्ढमाणो गुणगणेहिं ॥८॥ सूरिजिणेसर सिरिबुद्धिसागरा सागरो व्व गंभीरा । सुरगुरु-सुक्कसरिच्छा सहोयरा तस्स दो सीसा ॥९॥ वायरण-छंद-निग्घंट-तक्क-नाडय-कहाइया बहवे । विबुहजणजणियहरिसा जाण पबंधा पढिज्जंति ॥१०॥ ताण विणेओ सिरिअभयदेवसूरि त्ति नाम संजाओ । विजयक्खो पच्चक्खो कयविग्गहसंगहो धम्मो ॥११॥ जस्स गुणा गयमच्छरजणेण परिओसमावहंतेण । महुमासपल्लवा इव भण केण न धारिया कण्णे ॥१२॥ तेलोक्कजगडणुद्धरकंधरमयरद्धओ मलेऊण । तह मुक्को जेण पुणो सुमिणे वि न चेव संदुको ॥१३॥ आणंदियविबुहजणा पुण्णपया सुगइसाहणसमत्था । वयणगयणाउ गंग व्व भारई जस्स निक्खन्ता ॥१४॥
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