________________ गलई 853 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 3 गवेषणा गलई स्त्री०(गलकी) अनन्तजीववनस्पतिभेदे, प्रज्ञा०१ पद। गवक्खकरणाइ न०(गवाक्षकरणादि) तायनरचनाप्रभृतिके, गलंतणयण न०(गलन्नयन) गलन्ती नयने यत्र तद् गलन्नयनम् / / पञ्चा०१३ विव०। क्षरन्नयने, तं० गवक्खजाल न०(गवाक्षजाल) गवाक्षाकृतिरत्नविशेषदामसमूहे, जी०३ गलग पुं०(गलक) कण्ठे, प्रश्न०१ आश्र० द्वार। मत्स्ये, वाच। प्रति / 0 / रा०ा जालकोपेते गवाक्षे च / औ०। गलगवलुल्लंवण न०(गलकवलोल्लम्बन) 7 त०। कण्ठे हठात् / गवच्छ पुं०(गवच्छ) आच्छादने, रा०) वृक्षशाखादावुद्भन्धने, प्रश्न०१आश्र०द्वार। गवच्छिय त्रि०(गवच्छित) गवच्छ आच्छादनम्। गवच्छा: संजाता एष्विति गलग्गह पुं०(गलग्रह) गलहस्तदायके, कल्प०३ क्षण। गवच्छिता: आच्छादितेषु, रा०ाजा "किण्ह सुत्तसिक्कगवच्छिया'। गलत्थ-क्षिप-धा०। प्रेरणे, तुदा० सक्-अनिट् / "क्षिपेर्गलत्थाडक्ख-। जी०३ प्रति सोल्ल-पेल्ल–णोल्ल-छुह- हुल-परी-घत्ता:''1८1४।१४३। इति | गवय पुं०(गवय) गवाकृती, प्रश्न०१ आश्र० द्वार / बृ०। नि०चू० / क्षिपेर्गलत्थादेशः / गलत्थइ, छिवई' क्षिपति। प्रा०४ पाद। वृत्तकण्ठे, अनु०। वनगवे, नं० प्रश्नका "गां दृष्ट्वा यमरण्येऽन्यं, गवयं गलत्थलिअ (देशी) क्षिप्ते, दे० ना०२ वर्ग। वीक्षते यदा / भूयोऽवयवसामान्यभाजं वर्तुलकण्ठकम्।" स्था०४ गलरव पुं०(गलरव) गलेनाव्यक्तशब्दरटने, आव०४ अ०| ठा०३ उ०। प्रज्ञा०। गललग्गुक्खित्त त्रि०(गललनोत्क्षिप्त) गलं वडिशंतत्र लगः कण्ठे विद्धत्वात्, गवल न०(गवल) माहिषे श्रृङ्गे, औ०। उपा० जी० आ०म०प्रज्ञा०। जं०| उत्क्षिप्तौ जलादुद्धृतः / ततः कर्मधारयः / बडिशेन विद्धे जलादुन्नीते, रा०ा प्रश्न०। अन्त०। ज्ञा०। उत्ता गवलगुलिया स्त्री०(गवलगुटिका) माहिषश्रृङ्गस्य निविडतरसारनिज्ञा०१श्रु०१० अ० वर्तितायां गुटिकायाम् जं०१ वक्ष०ा जी०रा० गललाय त्रि०(गललात)कण्ठेनात्ते, औ01 "गलं ललाडं गललायवर- / गवालिय न०(गवालीक) गोविषयेऽनृते, अल्पक्षीरां बहुक्षीरां बहुक्षीरां भूसणाणं" औ० वा अल्पक्षीरामित्यादि वदति, ध०२ अधि०। प्रश्न०। आचा०। गलि त्रि०(गलि) गलत्येव केवलं न तु वहति गच्छति वेति गलिः / / नि०चू० उत्ता उत्त०१अ०। दुर्विनीते, उत्त०१ अ०। खलुले, स्था०१ ठा०१ उ०। गवास न०(गवाश्व) गौश्च अश्वश्च "गवाश्वप्रभृतीनि च" / 2 / 41111 आचा० इत्येकवद्भावस्तथारूपता च। गोघोटकयो, सम्म०३ काण्ड। गलिअं (देशी) स्मृतौ, दे०ना०२ वर्ग: गविट्ठ त्रि०(गवेषित)गवेषणयाऽऽते, व्यू४ उ०| गलिगढह पुं०(गलिगर्दभ) अविनीतेरासभे, "जारिसाममसीसाओ, तारिसा गवेधुआ स्त्री०(गवेधुका) चारणागणस्य चतुर्थशाखायाम्, कल्प०८ क्षण। गलिगदहा। गल्लिगद्दहे चइत्ता णं, दढं पगिण्हए तवं''|| उत्त०२७ अ०।। गवेलग पुं०स्त्री०(गवेलक) गावश्चैलकाश्चोरणिका गवेलका: 1 गवोरभ्रेषु गलिय त्रि०(गलित) द्रवीभूय क्षरिते, कल्प०४ क्षण / वाचा ऊरणिकेषु , / स्था०७ ठा०। ज्ञा० अनुग गलियस्स पुं०(गलिताश्व) दुर्विनीततुरगे, उत्त०१ अ०) गवेस धा०(गवेष) अन्वेषणे, चुरा०। गवेषेढुंतुल्ल-वंढोल-गमेसगलोई स्त्री०(गुडूची)"उतो मुकुलादिष्वत्"|८/१११०७। इत्यादेरुतोऽत्। | घत्ताः"||१९गवेषेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति / दुंदुल्लइ, प्रा०१ पाद।''ओत्कूष्माण्डी-तूणीर-कर्पूर--स्थूल-ताम्बूल-गुडूची- ढंढोलइ, गमेसइ, धत्तइ, गवेसइ 1 प्रा०४ पाद। मूल्ये"141१1१२४। इति कूकारस्य ओकार: / प्रा०१पादावल्लीविशेष, ‘गवेसइत्ता त्रि० (गवेसयित्) अन्वेष्टरि, "सम्मंगवेसइत्ता भवइ'' स्था०४ प्रव०४ द्वार। धन ठा०२ उ०। गल्लछल्ला (देशी) हस्तेन गलग्रहणे,ज्ञा०१ श्रु०६ अ०) गवेसग त्रि०(गवेषक) अन्वेषके, उत्त०१४ अ०। “अवि तुट्ठो न विरुद्धो गल्लप्फोड (देशी) डमरुके, दे० ना०२वर्ग। उत्तमट्ठगवेसओ" उत्तमार्थं गवेषक: मोक्षाऽभिलाषी उत्त०२५ अ०। गल्लमसूरिया स्त्री०(गल्लमसूरिका) लघुरूपे गल्लोपधाने, जीता / गवसेण न०(गवेषण) गवेष्यते अनेनेति गवेषणम् / मार्गणादूर्व गल्लोल्लपाणिय न०। गमुकजले,"पुलिंदो पुण उवयारवज्जिएणं सद्भूतार्थविशेषाभिमुखे व्यतिरेकधर्मपरित्यागतोऽन्वयधर्माध्यासागल्लोल्लपाणिएणं राहवेति"। नि०चू०१ उ०। लोचने, न०। ज्ञा०ा पिं० ओघा यथा० स्थाणावेव निश्चेतव्ये इह गव स्त्री०पुं०(गो) मृगादौ पशौ, सूत्र०१ श्रु०२ अ०३ उ०। वोले, को०। शिर:कण्डूयनादयः पुरुषधान घटन्ते। औ० गवक्ख पुं०(गवाक्ष) वातायने, जी०३ प्रति०। प्रश्न०। गोडुम्वायाम्, गवसणया स्त्री०(गवेषणता) गवेषणस्य भावो गवेषणता। ईहायाम्, नं०। इन्द्रवारुण्याम् शाखोटे, अपराजितायाम् 'गवाक्षी शक्रवारुण्यां, गवाक्षो / | गवेसणा स्त्री०(गवेषणा) गवेषणं गवेषणा। पिं० / अनुपलभ्यमानस्य जालके कपौ। है। वाचा पदार्थस्य सर्वतः परिभावने, पिं०