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________________ कयण्णू 352 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 3 कयण्णू तुह कमकमलं विमलं, दटुं दूराउ देवपइदिवसं। अवबुध्य ततस्तेषां प्रतिबोधं विशेषतः। धन्ना कलिमलमुक्का, रावमरालु व्व धावंति॥१७६।। वाचस्पतिमतिर्वाचमुवाचेति यतिप्रभुः।।२०४।। असरिसभवदुहदंदो-लिपीलियाणं जियाण जइ नाह!। राचन् ! राजकराकार-जैनमन्दिरसुन्दरम्। तं जिय इक्को सरणं, सीयत्ताणं च दिणनाहो // 180 / / प्रभूतवृत्तं वृतान्तं, पुरिमस्ति धरातलम् / / 205 / / तिहुयणपहुअमयं पिव, सम्मं तुह पवयणे परिणयम्मि। राजा शुभविपाकाख्यस्तत्र शत्रुवनानलः। अजरामरभावं खलु, लहंति लहु लहुयकम्माणो॥१८१।। सदा नभोगा देवीव, तद्देवीनिजसाधुता // 206|| देव वरनाणदंसण, दुहावितुहदंसणेण देहीणं। क्रमात्तओ समुद्भूतः, सद्भूतगुणमन्दिरम्। नीरेण चीवराण व, खणेण खयमेइ मालिन्नं // 182 / / केतकीपत्रपावित्र-चरित्रस्तनयो बुधः // 207 / / तुह समरणेण सामिय, किलिट्टकम्मो वि सिज्झए जीवो। शुभाभिप्रायभूपस्य, पुत्रिकां धिषणाभिधाम् / किं न हु जायइ कणगं, लोहं पि रसस्स फरिसेणं // 183 / / गृहं स्वयंवरायातता मुपायंस्त स यौवने // 208|| पहु ! तुह गुणथुणणेणं, विसुद्धचित्ताण भवियसत्ताणं। तथाऽशुभविपाकोऽस्ति, भ्राता तस्यैव भूपतेः। घणनीरेण व जंबू-फलाइ विगलं ति पावाई।।१८४।। भार्या परिणतिस्तस्य,तथा मन्दाह्रयः सुतः।।२०६। दसणपवणे नयणे, भालं मालं हवेइ तुह नमणे। अन्योऽन्यदृढसौहार्दी , बुधमन्दौ महामुदा। ता पचक्खीभावं, लहु महुति जई स वियरेसु // 18 // एकदा निजकक्षेत्रे, परिकीडितुमीयतुः / / 210 / / इय संधुओ सि देविंद-विंदवंदियजुगाइजिणचंद!। तस्यान्ते ददृशे ताभ्यां, विशालो भालपर्वतः। मह देसु निप्पकंप, भवे भवे नियपए भत्तिं / / 186 // रोलम्बनीलकेशालि-वनराजिविराजितः // 211 // एवं जाव धवलनरिंद-नंदणो थुणियपढमजिणचंद। अधस्तादालशैलस्य, वरापवरकद्वया। चंदु व्व विमललेसो-पंचंग कुणइ पणिवायं // 187 / / ददृशेऽन्तःस्फुरद्धान्ता, नासिकानामिका गुहा।।२१२।। ता तव्वेलं पत्तो, बहुखयरपरिगओ रयणचूडो। तगृहाश्रयिणा घ्राणा-भिधेन शिशुना समम्। तं सुणिय विमलविहियं,थयं पहिट्ठो भणइ एवं / / 188|| शिश्या भुजंगतानाम्न्या, मन्दो मैत्री मुदाऽकरोत् / / 213 // भो साहु साहु सुपुरिस ! निच्छिन्नो ते भवोपही एस। दध्यौ बुधस्तु शुद्धात्मा, सतामन्यस्त्रिया सह। जस्सेरिसी जिणिंदे, भत्ती विप्फुरइ अकलंका / / 186 / / आलापोऽपि न युक्तः स्या-न्मित्रतायास्तु का कथा // 214 / / तत्तो नमितुं देवं परुप्परं वंदाइयं काउं। तन्मे भुजंगता ह्येगषा, हेश घ्राणस्त्वसौ ध्रुवम्। मणिपीढियइच्चाहिं, हिट्ठाते दोवि दवविट्ठा / / 16 / / स्वक्षेत्रादिगुहामध्य-वास्तव्योऽर्हति पालनम् // 215|| अह पुच्छियतणुकुसलं, खयरिंदो भणइ भो महाभाग ! | एवं ध्यात्या बुधः कृत्वा, घ्राणेन सह मैत्रिकाम्। जं मह कालविलंबो, जाओ हेउं सुणसुतत्थ // 161 / / उभाभ्यामपि मन्दस्तु, स्वस्वसद्म समीपतुः॥२१६।। तइया तुम्ह सयासा, पत्तो सपुरम्मि पणमिया पियरो। अथो भुजंगता दोषात्, सुगन्धावाणलम्पटः। अभिनंदिओ य तेहिं, हरिसंसुयपुन्ननयणेहिं / / 16 / / अमन्दमन्दधीर्मन्दो, प्राप दुःखं पदे पदे॥२१७|| अक्वते तम्मि दिणे, मह सयणगयस्स सरियजिणगुरुणो। इतश्च यौवनारूढो, विचारोबुधदारकः / निद्दागया निसाए य, दव्वओ भावओ न उण||१६३|| कथंचिन्निरगाद्नेहा--देशदर्शनकाम्यया // 218 / / मो भुवणेसरभत्तय ! उट्टसु एवं सुणंतओ वयणं / बहिरङ्गात्तरङ्गेषु, भूरिदेशेषु भूरिशेषु भूरिशः। बुद्धो निएमि पुराओ, रोहिणिपमुद्दा उ विज्जाओ।।१६४॥ सभूरिकौतुको भ्रान्त्वा, तदागान्निजमन्दिरे // 216 / / तुह धीरधन्मिथिरभाव-रंजिया पुन्नपेरिया अम्हे। अथ तस्मिन् समायते, मुदितौ धिषणाबुधौ। सिद्धाउत्ति भणित्ता, मह अंगे अणुपविट्ठा उ / / 16 / / संतुष्ट राजकं सर्वं भृशमानन्दितं पुरम्॥२२०।। तो सयलखेयरेहि, विहियो मे खयर चक्किअभिसेओ। वृत्ते महाविमर्दैन, ततश्चागमनोत्सवे। बोलिणा के वि दिणा, नवरजं सुठवंतस्स / / 166|| साज्ञायि मैविका तेन, घ्राणेन बुधमन्दयोः॥२२१।। सुमरिय तुह आएसं, परिभमिओ भूरिमंडलेसु अहं / ततः पितरमेकान्ते, विचारः पोचिवानिति। दिट्ठो एगत्थ मए, बुहसूरी भूरिसीसजुओ।।१६७|| तात घ्राणेन ते मैत्री, न भव्या शृणु कारणम् / / 222|| फहिओ तुह वुत्तंतो, सयलो वि हु तस्स समणसीहस्स। तदहं तामतम्बां चा नापृच्छ्य निरगाां गृहात्। तुम्हाणणुग्गहट्ठा, अइरा इह सो पहूँ एहि // 168|| देशान् दिदृक्षुरभ्राम्यां, तात! देशेषु भूरिषु / / 223 // इय कारणाउ अह यं, कालविलंबेण कुमर ! इह पत्तो। अन्यदा भवचक्राख्ये, संप्राप्तोऽहं महापुरे। इय जा कहेइ खयरो, ता पत्तो तत्थ सो भयवं / / 166|| तत्र राज्यपथेऽपश्य मेका प्रवरसुन्दरीम्॥२२४|| उजाणपालएहि, तुरियं बद्धाविओ धवलराओ। तां दृष्ट्वा तात जातोऽहं, प्रमोदपुलकाङ्कितः। विमलखयराइसहिओ, पत्तो गुरुचरणनमणत्थं / / 200 / / चित्तमार्दीभवेद्दृष्टे, ह्यविज्ञातेऽपि सज्जने // 225 / / तिपयाहिणीकरेउ, सपरियणो पणमिऊण गुरुपाए। सोऽपि मां वीक्ष्य संजज्ञे, क्षिप्ते च सुखसागरे। मत्तिभरपुलइअंगो, उवविठ्ठो उचियदेसम्मि // 201 / / सिक्ते वाऽमृतसेकेन, प्राप्तराज्येव हर्षभाक् / / 226 / / अथ राजा गुरो रूपं, भुवानानन्ददायकम्। ततः कृतप्रणामोऽहं, प्रोक्तो दत्ताशिषा तया। साक्षानिरीक्ष्य निर्व्याज, व्याजहार सविस्मयः / / 202 / / कस्त्वं वत्स! मयाऽप्युक्तं, धिषणावुधभूरहम् // 227|| भगवन्नीदृशे रूपं, राज्यभारोचितेऽपि हि। अपृष्टवाऽपितरौ मात-Aधकालिकया गतः। कुतो वैराग्यता पवूज्य-र्जगृहे दुष्करं व्रतम् / / 203 / / अथो सा मां परिष्वज्य, प्रोचे हर्षाश्रुपूर्णदृक / / 228 / /
SR No.016145
Book TitleAbhidhan Rajendra Kosh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayrajendrasuri
PublisherRajendrasuri Shatabdi Shodh Samsthan
Publication Year2014
Total Pages1388
LanguageHindi
ClassificationDictionary
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