________________ कयणू क्यणू 346 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 3 निद्दिष्ट्ठो हं अह चंदणेण पासित्तु लक्खणं किं पि। बहुसालभंजियाहिं, विसिट्टचिट्ठाहिं सोहमाणाहिं। विजा चक्की होही, एसो खलु दारगो अइरा // 31 // वरअच्छराहि सययं, अहिट्ठियं मेरुसिहरं व।।५५|| तो विमलो मित्तेणं वुत्तो संवयइ तुब्भ तं वयणं / एवंविहजिणभवणं, पत्ता दिट्ठाय रिसहनाहस्स। सो भणइ न मे वयणं, किंतु इम आगमुद्दिट्ठ॥३२॥ पडिमा अपडिमरूषा, नमिया हिहेहिं तेहि तओ।।५६।। पुण भणइ रयणचूडो, तुटेणं माउलेण मम दिना। तं अइसयरमणीयं, बिंब उरुफुरियदुरियगिरिसंबं। तो चूयमंजरी परिणिया मए सा इमा भद्द॥३३॥ अणमिसनयणजुएहि, पिच्छेउं धवलनिवतणओ॥५७।। तत्तो य अचलचवला, कुविया न य मंचयंति परिहविउं। एरिसरूवं बिंब, पुव्वं पिमए कहिं चि दिट्ठति। भूयव्वछिदमग्गण पउप्पमणा निग्गमति दिणे / / 3 / / चिंतंतो मुच्छाए, पडिओ धरणीयले सहसा / / 58|| छलधायजाणणत्थं, फुडवयणो नियचरो पउत्तो मे। अह पवणपयाणेणं, पचागयचेयणो पुणो कुमारो। सो अन्नदिणे सहसा, आगंतुं मम कहित्था // 35 // अइआयरेण पुट्ठो, खयरेणं किं तुए यति // 56 / / जह देव दोस सिद्धा, काली विज्जा तहत्थि इय मंतो। तो रयणचूडचरणे, भवहरणे पणमिउं धवलपुत्तो। जुज्झिनिहिइ सहेगो, वीओ पुण तुह पियं हरिही॥३६॥ हरिसभरनिब्भरंगो, एवं थुणिउं समाढत्तो॥६०॥ को बंधवेहि सरिसं,जुज्झिस्सइ चिंतिऊण एवमहं। तुं माया तुं च पिया, तुंभाया तुं सुहं तुमं देवो। अवितेसि निग्गहखमो, इत्थ निलीणुम्हिलयगेहे // 37 // तुं परमप्पा जी, पि मज्झ तुंचेव खयरवर !||61 // ते दो विमए जिणिया, न य हणिया भायरुत्ति काऊण। जेण इमं सुरनरसुक्खकारणं दुरियतिमिररविबिंबं / इत्तो य परं तुम्ह वि. पायं सव्वं पि पचक्खं // 38|| बिंबं जुगाइदेवस्सं, दंसियं मह तए सामि॥६॥ नाधारं तेण इमं, मह जीयं धारियं तए अहवा। एवं दंसंतेणं तुमए महदंसिओसुगइमग्गो। सयला विधरा धरिया, जस्सुवयारे मई एवं // 36 // च्छिन्नं च दुक्खजालं, विणिम्मिय परमसोजन्नं / / 63|| उक्तं च 'दो पुरिसे धरिउधरा, अहवा दोहिं पिधारिया धरणी। खयरो वि भणेइ अहं, परमत्थं इत्थ किं पिन हुजाणे। उवयारे जस्स मई, उवयरिछं जो न संफुसइ॥४०॥ विमलो वि आह सामिय, संजायं जाइसरणं मे॥६४|| तो दिजउ आएसो, तुडभ पियं किं करेउ एस जणो। पुव्वभवेसु वि बहुसो, जिणबिंबे वंदिए मए नाह। अह दंतकंतिधवलिय धरवलओ जंपए विमलो॥४१।। संमत्तनाणदंसण चरणं परिपालियं सुद्धं // 65 // भो रयणचूडमणी तुआसि कत्तु लोयम्मि। मित्तीपमोयकरुणा मडभत्थगणेहिं भाविओ अप्पा। सव्वं पितए विहियं, पयड तेणं नियरहस्सं // 42 // इचाइ मए सरियं, जाइसरणेण सव्वं पि॥६६॥ यतः वचः सहस्रेण सतांनसुन्दरं, तं मज्झ कयं तुमए, जं परमगुरु कुणंति भौ भद्द ! हिरण्यकोट्यापिन वा निरीक्षितम्। इय जपंतो कुमरो, पडिओखयरिंदचलणेसु॥६७।। अवाप्यते सज्जनलोकचेतसा, अलमित्थसंभमेणं, तिट्ठतु उट्ठाविउंच निवतणयं। नकोटिलक्षैरपि भावमीलितम्॥४३॥ साहमियं ति वंदितु, सहविणयं जंपए खयरो॥६५॥ तो सप्पणयं भणियं, खयरेणं कुमार ! मज्झपसिऊण। भो भो नरिदनंदण ! संपन्नं मह समीहियं सव्वं / गिण्हसु इमं सुरयणं, चिंतामणिरयणसारिच्छं // 44|| जं एवं तुह भत्ती, जिणनाहे निचला जाया / / 6 / / जंपइ धवलंगरुहो, दिन्नं तु मए य गहियमिणं। ठाणे य एस हरिसो, पयडुक्करिसो कुमार! तुह जम्हा। अत्थ उ तुहेव पासे, मुच्चउ अइसंभयं भद्द!॥४६|| मुतं दुहाविमुत्तिं, नन्नत्थ रमंति सप्पुरिसा // 70 / / अह अइनिरीहभावं, नाविमलस्स विमलभावस्स। उक्तंच "अज्ञानान्धाश्चटुलवनितापाङ्गविक्षेपितास्ते, तचेल अंचले तं, रयणं बधइरयणचूड / / 46|| कामे सक्तिं दधति विभवाभोगतुङ्गार्जने वा। पुट्ठोय वामदेवो, अंबापिउनाममाइयं सव्वं / विद्वचित्तं भवति हि महामोक्षसौख्यैकतानं, कुमरस्स संतियं कहइ सहारिसो खेयरवरस्स॥४७॥ नाल्पस्कन्धे विटपिनि कषत्यंशभित्तिं गजेन्द्रः॥७१।। तं सुणिय विमलचरियं, अच्छरियकरविचिंतए खयरो। किंच नियभावसरिसं, फलमिह मिच्छंति पाणिणो पायं। पडिउवगरामि अह यं, जिणबिबंदसिय इमस्स।।४८|| सुणओ कवलेण हरी, तु वसइ करिकुभदलणेण / / 72 / / तो भणियं खयरेणं, कुमारवर ! अत्थि काणणे इत्थ। उत्तालको नच्चइ, वीहिदलं पप्प मूसओ अहियं / मम मायामहकारिय माइजिणिंदस्स चेइहरं / / 46 / / भुंजइ करी अवन्नाइ भोयणं निवइदिन्नं पि॥७३॥ तं मम काउ पसायं, कुमरवरो दुटु अरिहए इण्डिं। पुट्विं तुमं सुरयणे, पत्ते मज्झत्थ भावमल्लीणो। एवंति भणिय सव्वे, जिण भवणाभिमुहमह चलिया।।५० / / नहु लक्खिओ मए तुह, हरिसवियारोमणागं पि॥७४|| थंभसयसंनिविटुं, बहुविहद्रुमसंगयं च उजाणं। अहुणा तु पुण जाओ,हरिसभरुब्भिज्जमाणरोमंचो। नहु(ह)सुरसरिलहरीहि व, मणोहरं परपडागाहिं॥५१।। जिणपवयणस्स लाभो, पुरिसुत्तम ! साहु साहु असि / / 7 / / अइउन्नएहिं कंचणपयदंमेहं च दंतुरं व सया। परमित्थ जणेनेवं, गुरुत्तमारोवणीययं कुमर ! उवरि विरायमाण, चामीयरविमलकलसेणं // 52 // जंबुद्धो सि सयं चिय, निमित्तमित्तं जणो एसो // 7 // कत्थइ पल्लवियं पिव, रोमंच पवंच अत्रियं व कहिं। लोयंतियदेवेहि, सहसंबुद्धा जिणेसरा जइ वि। संवम्मियं व कत्थ वि, कत्थ वि लित्तं च किरणेहिं / / 53 / / बोहिजति तहा वि, तेसिं न हुहुति ते गुरुणो॥७७॥ ठाणट्ठाणे वियरिय हरिचंदणवासगेहिं कयसोहं। तह चेव इमो विजणो,जाणिजउतो भणेइ निवतणओ। सुसिलिट्ठसंधिभावा, इक्कसिलाइचनिम्मवियं // 54 // संबुद्धवाण जिणाणं, हेऊ विन हुति ते देवा // 78||