________________ चेइयवंदण 1301 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 3 चेइयवंदण विश्वत्रयैकदर्शन ! सहस्रदर्शननतक्रम ! जिनेन्द्र!। सवणंतपत्तदसण!, अणतदंसण ! चिरं जयसु / / 54|| पूर्वाकृतसुकृताना, पूर्वाशीलितविसुद्धशीलानाम्। अविहियतघाव पुट्विं, न होइ तुह दंसणं चेद।।५।। भवशतकतमपि पापं, त्वदर्शनतो विलीयते नाथा। पिंडीभूअं पिघयं, दुअजहा जलिरजलणाओ॥५६॥ समयोऽयमेव शस्यः सलक्षणोऽसौ क्षणस्तदहरनधम्। पक्खो वि सो सपक्खो, जयवधव! दीससे जत्थ / / 573 / द्रष्टुमदृष्ट वाञ्छा, दृष्ट त्वयि नाथ ! विरहजं दुःखम् / इय जइ दुहा विन सुह, तहा वि सुह दंसणं होतु // 58|| पूर्वोर्जितसुकृतकृतं, भाविशुभनिबन्धनं हरति चैनः। इय कालत्तयसहय, जिणाण तह दंसणं दलहं॥५६॥ स्वामिन् ! स्वदर्शनं कुरू, तथा यथा स्यात्पुनर्न तदभावः। जच्चधवेयणाओ, चक्षुक्खयवेयणा दुसहा // 60 / / नामाऽपि नाथ ! यस्ते, वरमन्त्रसधर्म कीर्तयति तस्य। मिच्छादसणदोसो, लहु नासइकिं परं भणिमो? ||61 / / य इति जिन! त्वामन्यू-नदर्शनान्यूनदर्शनं नौति। स विशुद्धदर्शनः श्रय-ति सत्वरं सर्वदशिंत्वम्।।६।। इय थोउ चेइयं जा, सविम्हयं नियइ सव्वओ कुमरो। ता पिच्छइ पच्छिमदिसि, कमलललामंच पुक्खरिणि // 63 / / गंतु तत्थ जलेणं, महुरेणं सीयलेण विमलेणं। गुरुवयणेण व अप्पं, सोहिय जा विस्समइ सुत्थो॥६४।। ता गुजाहलहारो, सलसइसालाकरो हलिद्दनिहो / एगो समागओ तत्थ वानरो वानरीजुत्तो // 65 // समणुयगिराइ कुभरं, पणमिय भणइ पहु ! असरण्णसरण ! / सुदय ! पवण्णसुदक्खिण, ! कुमर ! मह सुणसु वित्तंतं / / 66 / / इह अडवीइ सया वि हु, वानरजूहाहिवत्तमासी मे। एसा उ वल्लहा तह, पाणेहि वि वल्लहा निच्चं // 67 / / तं मह जूहं इण्हि, वणंतरगयरस वानरेण बला। अवहरिओ अत्तेणं, तं तु समत्थो वि णिग्गहिउ॥६८।। नवरं न देइ मह तेण जुज्झिउं नेहकायरा एसा। अहमवि इमं न सके-मि इत्थ एगागिणि मुत्तुं // 66|| संपइ तुम महायस!, मणनयणूसवकरो सुबंधुव्व। परउवयारिकपरो, दिह्रो पुण्णोदएण मए।।७०।। ता जाव अहं रिउवा नरं लहुं निहणिऊण एमि इहं। ता नेहभीरु एसा, निरुद्धवा ठाउ तुह पासे / 71 / / इय भणिय तइ मुत्तुं, गओ इमो चिंतए तओ कुमरो। कह मणुअगिरा एसो, वयइ पवन्न इव मईपुव्वं / / 72 / / बलिअरिउणा पियं जा, निहयं न सुणामि ता मम विजुत्तं / मरणं ति भणिय कुमर-स्स वानरी पडइ वाविं तो॥७३॥ नहु मह इमीइ सरणा गयाइ मरणं उविक्खिउं उचिअं। इह ताइ कड्डणत्थं, झंपावइ तत्थ जा कुमरो।७४।। तावन्न वावि नजलं, न वानरी तत्थ किं तु अप्पाणं / वरमणिमयपासाए, पल्लकगयं नियइ कुमरो॥७५।। अह अनियंता कुमर, भिचा गंतु कहति मंतीणं। ते विहु सन्निहियबला, तं कयजत्ता गवसंति // 76 / / आगम्मनाग एगो, अह कुमरं पइपयंपइ इह भो ! / मा किं पि चिंतियऽन्नं, कारणओ तं मयाऽऽणीओ।।७७।। को तं किमाणिओ हं, इअ कुमरुत्ते नरो भणइ सुणसु / अमिअगई असुरोऽहं, कीलाभवणं च मह एयं / / 78|| कइआ दइआसहिओ, उचिंते समएँ केवलिं जंतुं। चलिओ निएमि मग्गे, जोगिअमिक्कं मसाणंते॥७६।। रतंदणकयतिलयं, परिहियमिगवम्मचित्ततयदुप्पं / कसिणाहि जोगवट्ट, मिल्हत्तं गरुयहंकारं / / 8 / / तस्सऽग्गे जलिरानिल-कुंडयामम्मि कन्नगं चेव। रुथमाणिं रतंदण लित्तं कणवीरमालिन्नं / / 1 / / तंजा खिविही जलणे, समए ता तजिओ अरे पाव!। असमंजसमिअकाउं, कत्थिण्हिं वचसि हयास ! / / 8 / / तो सो भीओ कन्न, मुत्तु नट्ठो दया इमे मुक्को। पत्तो अहं पिरवेय गिरिम्मि तं बालिअं नहिउं / / 83 / / तत्थ सुरिसुमइकेवलि मुणिणो कमकमलममलमहं / पणमित्ता आसीणो, सुणामि इय दंसणं अणहं / / 4 / / "कोहो अप्पीइकरो, उव्वेयकरो य सुगइमिद्दलणो। वेराऽणुबंधजणणो, जलणो वरगुणगणवणस्स / / 8 / / कोहधा निहणंति य, पुत्तं मित्तं गुरुं कलत्तं च। जणय जणिं च अप्पिं, पि निधिणा किं च ण कुणंति॥८६|| कोहऽग्गीपञ्जलिओ. न केवलं डहइ अप्पणो देहं / संताविइ य परं पिहु, पहवइ परभवविणासाय / / 7 / / ता कोहमहाजलणो, विज्झवियव्यो खमाजलेण सया। अन्नह दुसह दुक्खं, देइजह इमीइ बालाए।।८८॥" भयवं कोहवसेण, इमीइ पत्तं दुहं कह ति मया। पणमिय पुट्ठो स कहे-इ केवली असुर ! निसुणेहि / / 6 / / कयमंगलापुरीए, धणसिट्ठिसुया उ बालविहवाऽऽसी। जयसुंदरी ति तीसे, भत्तिजुया भायरा पंच // 60 / / जिट्ठस्स पुणो भजा, न वट्टए तीइ सह सया सम्म। तं परिणावइ अन्नं, कन्नं सा मच्छरिल्लमणा / / 11 / / तीइ कयं जं कि पी. दूसइतह दुहइ दुट्ठवयणेहि। गयलज्जा संमुहमुत्तरं दयइ भाउजाया बि ||2|| जिणभवणमागयाओ, वि परुप्परविलियभासणेण इमा। अन्नाण वी निसीहियभंगाई कुणंति विकहतए / / 63|| जओजो होइ निसिद्धप्पा, निसीहिया तस्स भावओ होइ। अनिसिद्धस्स निसीहिय, केवलमित्तं भवइ सहो / / 4 / / मिहो कहाओ सव्वाओ, जो वज्जेइ जिणालए। तस्स निस्सिहिया होइ, इह केवलिभासियं / / 6 / / इह अट्टवसट्टओ, परुप्पर दो विकलहमाणाओ। विजूए दड्ढाओ, मरिउं,जायाओ वग्धीओ।।६६|| पुबब्भासा अन्नुन्नदसणा जायतिब्बरोसाओ। जुज्झिय मरिउ तत्तो, पत्ताओ तइयनरयम्मि ||7|| तत्तो उवडिय गयउरम्मिपुव्वभवविहियसुकययसा। भाउजायाजीवो, जाया सिरिसूरनिवजाया // 68|| तीसे गब्भे धुयत्ताइ नणंदजिओ उ उप्पन्नो। अरई मणसंतावं, उच्वेयं जणइ अइगरुEET विहिएसु वितप्पाडणहेछसएसुन जाव सा पडिया। तो जाया पयमेउ, मय त्ति दासीऍ छडुविया // 10 // तदिवसपसूयाए, तीए पुण अप्पियाएँधूयाए। तत्थ य पालिज्जती, सा बाला वद्रिया एत्तो / / 101 / / कीलंती डिंभेहिं,अहऽन्नया जोगिएण भोलविउं। अइरुद्दमंतसाहणहउँनीया मसाणे सा॥१०॥ जा छिविही सा जलणे, ता तुमए मोइउं इहाणीया। इअनाउं भी अप्पा, कसाइयव्वो न थोवं पि॥१०३।।