________________ चेइयवंदण 1302 - अमिधानराजेन्द्रः - भाग 3 चेइयवंदण - - भणियंचअणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च। नहु भे विस्ससिअव्वं, थोवं पि हुतं बहु होइ।।१०४।। दासत्तं देइ अणं, अइरा मरणं वणो विसप्पंतो। सव्वस्स दाहमग्गी, दिति कासाया भवमणतं॥१०५।। सा भणइ सरियजाई, भयवं ! सव्वं पि मेऽणुभूयमिणं / ता इम्हि कुण करुणं, दुहा वि जह होमि निस्संगा // 106 // भणइ मुणी गिहिधम्मस्स इण्हि उचिया तुम जओ अत्थि। पुवकयदेवपूया-इसुकयसंभूयभोगफल / / 107 / / जओदेवचणेण रज, भोगा दाणेण रूवमभएणं। सोहगं सीलेणं, तवेण मणवंछिया सिद्धी॥१०८।। सा भणइ तुम्ह सव्वं, पचक्खं नाह! नवरि मज्झ कह। अविरयसुराण मज्झट्टयाइ निव्वट्टिइ गिहिधम्मो / / 106 / / तो केवलिण भणियं, भद्दे ! कालिंजराइ अडवीए। सिरिरिसहनाहभवणम्मि तुज्झ पूर्य रयंतीए।।११०।। हेगप्पहरायसुओ, तत्थ समागच्छिही भुवणमल्लो। जिणनमणत्थं विहिणा, काउं निस्सीहियातियगं / / 111 / / तेण सम रजसुहं, माणित्ता पालिउंच गिहिधम्म। पडिवजिय पव्वज़, लहिही अइराऽमरट्ठाणं // 112 / / अह तीए गिहिधम्मे, पडिवन्ने नमिअ केवलिस्स मए। इच्छाए णं विहियं, विजयपयम त्ति से नामं॥११३।। अह कुमर ! अज्ज एसा, जाव गया चेइयम्मि पूयत्थं। ता कयनिसीहियतिगो, जिणनमणत्थं तुम पत्तो / / 114|| निस्सीहियं कुणंतं, दट्ट इमा सूरीहिं भणिय त्ति। जो केवलिणा कहिओ, धुवं इमो भुवणमल्लो सो।।११५।। अह ताहिँ वाविपमुहं, काउपवंचं तुम इहाऽऽणीओ। ता तिइ पाणीगहणेण कुन्नसु मह पत्थणं सहलं / / 116 / / कुमरो भणइ पमाणं, आएसो नवरि गम्मउ बलम्मि। न विरहिओ परियणो, दुहेण गमिही खणं पिजओ।।११७।। आरोविउ विमाणे, कुमरं सिविरम्मि नेइ जा असुरो। ता सहसा उज्जो, हटु सचिवाइणो विति॥११८|| भो दुं पिता तए जा, हरिओ जेण कुमरो तओ क्खोहं। चइयह वहसज्जा साहसस्स दइवो विन हु किं पि।।११।। यतःसत्त्वैकतानमनसा, स्फूर्जदूर्जस्वितेजसाम्। दैवोऽपि शङ्कते चैषां, किं पुनर्मानवो जनः // 120 / / इय ते जा साडोवा, हुंति सुणंति त्ति ताव अमरगिरं। सत्तप्पहाण अवितहभिहाण जय सिरीभुवणमल्ल / / 121 / / परउवयारपरायण, पुरिसेसुं तुभ दिजए लेहा। पसुमित्तस्स वि कजे, गणेसि पाणे तिणसमाणे // 122 / / इय सुणिय जायहरिसा, ते ओयरियं विमाणओ कुमरं। पणमति तयं असुरं, देवीसहियं तु तुट्ठमणा / / 123 // तो सो असुरो हिट्ठो, कुमरेण विवाहए तयं धूयं। सप्पणयं भणइतहा, वच्छे सुण मज्झ वयणमिणं / / 124 / / निर्व्याजा दयिते ननान्दृषु नता श्वश्रूषु नम्रा भवेः, स्निग्धा बन्धुषु वत्सला परिजने स्मेरा सपत्नीष्वपि। पत्युमित्रजने सनर्मवचना, खिन्ना च तद्वेषिषु, स्त्रीणां संवननं ननूचितमिदं चित्तौषधं भर्तृषु / / 125 / / आमं त्रि ती वुत्ते, असुरो सपियस्स भुवणमल्लस्स। वत्थाभरणाइ बह,दाउंपत्तो सठाणम्मि।१२६॥ कुमरो वि तओ चलिओ, पत्तो चंपाइ तमह वुत्तंत / सिरिसेणनिवो सोउं, इय चिंतइ हरिसिओ हियए।१२७॥ तम्मि कुले उप्पत्ती, सो विणओ तं कलासु कोसल्ल। सोको वी पुण पब्भारपगरिसो अत्थ एयस्स / / 128|| जेणं लीला इच्चिय, धुवं करिस्सिही राहवेहं ति। निव्वुयहियओ राया, कुमर संठवइ वरभुवणे / / 126 / / अहसजिअराहावे-हमंडवे रयणथंभसोहिल्ले। मंचोवरि वरसीहासणोवविढेसु निवईसु॥१३०।। कुमरो असुरऽप्पियए, वरवत्थआहरणभूसियसरीरो। परिहारदसियम्मि, णिवसइ सीहासणे रम्मे॥१३१।। इत्तो य रयणमाला, कुमरी सियसिचयसारलंकारा / सिवियारूढा पत्ता, तत्थुवविट्ठा पिउच्छंगे॥१३२। अह सिरिसेणनिदेणं, घ्रणियं भो भो निवा ! निवइपुत्ता ! / जो राहमिणं विंधइ, सो कन्नाए इमाइ वरो॥१३३।। जा मंडवमज्झे सुदिट्टकणयथंभोवरि अहोवण्णा। वरकंचणपुत्तलिया, ठविया तीसेउ हिट्ठम्मि।।१३४॥ चउ चउ चक्काई दाहिणेण वामेण वेगभरियाई। तेसिँ अहो भूमीए, तिल्लजुआ कुंडिया ठविया / / 13 / / तत्थ पडिविंबयाए, पंचालीए अहो नियंतेणं। विधेयव्वा वामच्छितरिया सावहाणेण / / 136 / / तह इह पत्ताण मए, सव्वेसिं खत्तियाण नामाइं। भुजेसु लिहावेउ, मिम्मयगोलेसु खित्ताई।।१३७।। ठवियाइँ ताइ इह सायकुंभकुंभम्मि संति कढ़ते। अम्ह पुरोहियम्मी, गोलो किर नीहरइ जस्स / / 138|| सो राहावेहम्मी, ववसायं कुणइ इय ववत्थ ति। तत्थ पुरोहियहत्थे, अह पढमे गोलए चलिए।१३६॥ नामम्मि वाइए तह, अउज्झनयरीएँ पहु जस्स अंगरुहो। मयरद्धयकुमरो वहिण सकरे करेइ धj।।१४०।। पुव्वभणिएण विहिणा, मुक्को वि हु अप्पडित्तु अयरम्मि। सुचरणमुणिहियए इव, भग्गो मयरद्धयरस सरो॥१४१।। एवं राहावेहे, विहियारंभेसु खत्तिअवरेसु। उडेइ भुवणमल्लो , कुमरो इह अवसरे पत्ते // 142 / / सज्जीकयधण्णुगुणो, अंतरमह लहिय मुक्कअसमसरो। राहावेहं साहई, गंठीभेयं व भव्यजिओ।।१४३|| जयतालादाणपरे, जणम्मि कुमरेठ हट्ठतुट्ठमणो। तो सिरिसेणनरिंदो, परिणावइ रयणमालं तं / / 144 / / कयसंमाणे अन्ने, नियनियठाणे निवे विसज्जेइ। कुमरो वि कइचि दिवसे, सुहेण तत्थेव ठाऊण / / 145 / / सिरिसेणनिवमणुन्नविय बहुयपरिवारपणइणीसहिओ। पत्तो नियम्मि नयरे, पिऊण पणमेइ पयपउमं / / 146 / / भुत्तुत्तरं च सीहो, कुमरवयंसो कहेइ सव्वं पि। रणो जंजह वित्तं, ता जाव इहागओ कुमरो॥१४७|| धम्मत्थिणा अह निवणाय कयाइ सव्वदंसणिणो। पुट्ठा धम्म तेहि उ, कहिए चिंतइ इमं राया॥१४८|| जत्थन विसयविराओ,न संगवाओ जिएसु विणिवाओ। किह हुज्ज सो विधम्मुत्ति चिंतिउंते विसजेइ॥१४६।। कहइ कुमारो इच्छा, धम्मं जइ णाउ ताय ! जइणो वि। ता पुच्छय मुणिणो रक्खियंगिगयसंगजियऽणंगा / / 150 / /