________________ चरणविहि 1126 - अभिधानराजेन्द्रः - भाग 3 चरम जे भिक्खू संभए निचं, से ण अच्छा मंडले॥५|| विगहाकसायसन्नाणं, झाणाणं वहुयं तहा। जे मिक्खू वजए निचं, से ण अच्छइ मंडले // 6 // वएसु इंदिअत्थेसु, समिईसु किरियासुय। जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले / / 7 / / लेसासु छसु काएसु, छक्के आहारकारणे। जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छइ मंडले // 8|| पिंडुग्गहपडिमासु, भयट्ठाणेसु सत्तसु। जे मिक्खू जयई निचं, से ण अच्छइ मंडले || मंदेसु वंभगुत्तीसु, भिक्खुधम्मम्मि दसविहे। जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छइ मंडले // 10 // उवासगाणं पडिमासु, भिक्खूणं पडिमासु य! जे मिक्खू जयई निचं, से न अच्छइ मंडले // 11 // किरियासु भूयगामेसु, परमाहम्मिएसु य। जे भिक्खू जयई निचं, से न अच्छइ मंडले // 12|| गाहासोलसएहि, तहा अस्संजमम्मिय। जे मिक्खू जयई निचं, से न अच्छइ मंडले ||13|| वंभम्मि नायज्झयणेसु, ठाणेसु य समाहिए। जे भिक्खू जयई निचं, सेण अच्छइ मंडले // 14|| एगवीसाएँ सवले, वावीसाए परीसहे। जे भिक्खू जयई निचं, से ण अच्छइ मंडले // 15 // तेवीसाए सूयगडे, रूवाहिएसु सुरेसुय। जे मिक्खू जयई निचं,से ण अच्छइ मंडले / / 16 / / पणवीसमावणेहिं, उद्देसेसु दसाइणं। जे भिक्खू जयई निचं, से ण अच्छाइ मंडले ||17|| अणगारगुणेहिं च, पकप्पम्मि तहेव य। जे भिक्खू जयई निचं, से ण अच्छइ मंडले // 18 // पावेसु य पसंगेसु, मोहद्वाणेसु चेव य। जे भिक्खू जयई निच्चं, से ण अच्छइ मंडले // 16 // सिद्धाइगुणजोगेसु, तेत्तीसासायणासुय। जे भिक्खू चयई निचं, से ण अच्छइ मंडले // 20 // इत्यादि एकोनविंशतिः सूत्राणि। उत्त०३१ अ०। (विरत्यादीनामोंऽन्यत्रान्यत्र) अध्ययनार्थं निगमयितुमाहइय एएसु ठाणेसु, जे भिक्खू जयई सया। खिप्पं सो सव्वसंतारा, विप्पमुच्चइपंडिओ // 21 // इत्यनेन प्रकारेणैतष्वनन्तरोक्तरूपेषुस्थानेषु असंयमादिषुयोभिक्षुर्यतते उक्तन्यायेन यत्नवान् भवति सदा क्षिप्रं स संसाराद्विप्र-मुच्यते पण्डित इति सूत्रार्थः / उत्त०३१ अ०। एकत्रिंशेउत्तराध्ययने, स०३६ सम०। / चरणसंपण्ण त्रि० (चरणसंपन्न)। सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रतपः सपछे, पं० चू०। चरणहीण त्रि० (चरणहीन)। सर्वथा चारित्रसत्ताविकले द्रव्यचरणहीने, ध०३ अधि०। प्रव०। आव०। चरणाराहणाणिमित्त न० (चरणाराधनानिमित्त) / अस्खलितचारि पालनार्थे, पञ्चा०२ विव०। चरणेरिया स्त्री० (चरणेा ) / अभ्र-वभ्र-मभ्र-चर' गत्यर्थाः / चरतेवि ल्युट्चरणं, तद्रूपेर्या चरणेया श्रमणस्य केनापि प्रकारेण भावरूपे गमने, आचा०२ श्रु०३ अ०१ उ०। ('इरिया' शब्दे द्वितीयभागे 626 पृष्ठे विस्तरतः प्रतिपादितम्) चरम् त्रि० (चरम)। अवसानवृत्तौ, षो०३ विव० / पर्यन्तवर्तिनि, प्रज्ञा०५ पद। भ०। विषयसूची(१) चरमाचरमनिर्वचनम्। (2) चरमाचरमलक्षणम्। (3) रत्नप्रभादीनां नैरयिकादीनां च चरमाचरमविभागः / (4) रत्नप्रभादिषु प्रत्येकं चरमाचरमादिगतमल्पबहुत्वाभिधानम्। (5) लोकालोकविषये प्रश्नाः। (6) परमाणुपुद्गलानां चरमाचरमत्वविचारः। (7) जीवादीनां चरमाचरमविभागेन चिन्तनम्। (8) स्थितिचरमे विचारः। (6) जीवदयो जीवभावेन चरमा अचरमा वेत्याहारादिविशेषेण प्रश्नाः / (10) अल्पस्थितौ चरमाचरमविचारः। (1) अथ केयं चरमाचरमपरिभाषे ? तत्रोच्यते-चरम नाम प्रान्तं पर्यन्तवर्ति, आपेक्षिकं च चरमत्वं, यदुक्तम्-अन्यद्रव्यापेक्षया इदं चरम द्रव्यमिति, यथा पूर्वशरीरापेक्षया चरमं शरीरमिति / तथा अचरम नाम अप्रान्तं मध्यवर्ति, आपेक्षिकं चाचरमत्वम्, यदुक्तम्-अन्यद्रव्यापेक्षया इदमचरम द्रव्यं, यथाऽन्यशरीरापेक्षया मध्यशरीरमिति। भ०८ श०३ उ01 (2) अथ चरमाचरमलक्षणाभिधानायाऽऽहजो जं पाविहिति पुणो, भावं सो तेण अचरिमो होइ। अचंतविजोगो ज-स्स तेण्ण भावेण सो चरिमो।। (जो जं पाविहिति त्ति) यो जीवो नारकादिर्य जीयत्वनारकत्वादि कमप्रतिपतितं प्रतिपतितं वा प्राप्स्यति लप्स्यते पुनः पुनरपि भावं धर्म, सतेन भावेन, तद्भावापेक्षयेत्यर्थः; अचरमो भवति। तथा अत्यन्तवियोगः सर्वयाविरहो यस्य जीवादेर्येन भावेन स तेनेति शेषश्चरमो भवतीति। भ०१६श०१ उ०। (3) रत्नप्रभादीनां नैरयिकादीनां च चरमाचरमविभागमाहइमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं चरमा, अचरमा, चरमाइं, अचरमाइं, चरमंतपदेसा, अचरमंतपदेसा ? गोयमा ! इमा णं रयणप्पभापुढवी नो चरमा, नो अचरमा, नो चरमाइं, नो अचरमाइं, नो चरमंतपदेसा, नो अचरमंतपदेसा, नियमा अचरमं चरमाइ य चरमंतपदेसा य, अचरमंतपदेसाय, एवं० जाव अहे सत्तमा पुढवी सोहम्मादी० जाव अनुत्तर