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________________ आर्या सप्तशती ] ( ५८ ) [ आर्या सप्तशती हो चुका था । अजन्ता की दीवारों पर 'जातकमाला' के कई जातकों के दृश्य अंकित हैं - शान्तिवादी, मैत्रीबल तथा शिविजातक के । इन चित्रों का समय ५ वीं शताब्दी है । 'जातकमाला' में ३४ जातकों का वर्णन काव्य- शैली में किया गया है । इनमें कुछ की रचना तो पालिजातकों के आधार पर तथा कुछ की अनुश्रुति के रूप में हुई है । इनकी दूसरी रचना का नाम है- 'पारमितासमास ।' इसमें कवि ने छह पारमिताओं दान, शील, क्षान्ति, वीर्य, ध्यान तथा प्रज्ञा पारमिता- - का वर्णन छह सर्गों में किया है, जिसमें ३६४ श्लोक हैं और शैली 'जातकमाला' की ही भाँति सरल एवं बोधगम्य है । [ जातकमाला का हिन्दी अनुवाद, केवल २० जातकों का, सूर्य नारायण चौधरी ने किया है ] आर्यशूर का समय तृतीय या चतुर्थ शताब्दी है । इनकी शैली काव्यमयी, परिष्कृत एवं संयत है । 'आर्यशूर की शैली काव्यशैली है, जो काव्य के उपकरणों पर उनसे अधिकार को दिखाती हुई भी उनकी परिष्कृत रुचि के कारण अत्युक्ति से रहित और संयत है । उनका गद्य और पद्य समान रूप से सावधानी के साथ लिखा गया और परिष्कृत है ।' आधारग्रंथ - संस्कृत साहित्य का इतिहास - ए० बी० कीथ पृ० ८४ । आर्या सप्तशती - यह ७०० आर्या रचयिता गोवर्धनाचार्य हैं । वे बंगाल के समय १११६ ई० है । कवि ने स्वयं अपने ग्रन्थ में आश्रयदाता का उल्लेख किया है । सकलकला : कल्पयितुं प्रभुः प्रबन्धस्य कुमुदबन्धोश्च । छन्दों में रचित राजा लक्ष्मणसेन के सेन कुलतिलकभूपतिरेको राकाप्रदोषश्च ।। ३९ गोवर्धनाचार्य के पिता का नाम नीलाम्बर था जिसका निर्देश कवि ने भी अपने ग्रन्थ में किया हैं - तं तातं नीलाम्बरं बन्दे । ३८ | इन तथ्यों के अतिरिक्त इनके जीवन के सम्बन्ध में और कुछ भी ज्ञात नहीं होता । गोवर्धनाचार्य ने प्राकृत भाषा के कवि हालकृत 'गाथा सत्तसई' के आधार पर ही 'आर्या सप्तशती' की रचना की थी। इसकी रचना अकारादि वर्णानुक्रम से हुई हैं जिसके अक्षर क्रम को ३५ भागों में विभक्त किया गया है । ग्रन्थारम्भ व्रज्वा, अकार व्रज्वा, आकार व्रज्वा, इकार, उकार, ऊकार, ऋकार, एकार, ककार, खकार, गकार, धकार, चकार, छकार, जकार, झकार, ढकार, तकार, दकार, धकार, नकार, पकार, बकार, भकार, मकार, यकार, रकार, लकार, वकार, शकार, षकार, सकार, हकार एवं क्षकार व्रज्वा । मुक्तक काव्य है जिसके आश्रित कवि थे जिनका 'आर्या सप्तशती' शृङ्गारप्रधान काव्य है जिसमें संयोग एवं वियोग श्रृङ्गार की नाना अवस्थाओं का चित्रण है । कवि ने नागरिक स्त्रियों की शृङ्गारिक चेष्टाओं का जितना रंगीन चित्र उपस्थित किया है ग्रामीण स्त्रियों की स्वाभाविक भाव-भंगिमाओं की भी मार्मिक अभिव्यक्ति में उतनी ही दक्षता प्रदर्शित की है । स्वयं कवि अपनी कविता की प्रशंसा करता है- मसृणपदरीति गतयः सज्जन हृदयाभिसारिकाः सुरसाः । मदनाद्वयोपनिषदो विशदागोवर्धनस्यार्याः ॥ ५१ ॥
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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