SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 609
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वेताश्वतर उपनिषद] (५९८) [शंकरघेतोविलास ! का आश्रय ग्रहण कर विचित्र कल्पनाएं की हैं और कहीं-कहीं अप्रस्तुत-विधान के बटाटोप में विषय की स्वाभाविकता को भी ओझल कर दिया है। नैषधकार अपने पदलालित्य गुण के कारण संस्कृत विद्वानों में समाहत हैं और नषष सुन्दर पदों का अपूर्व भाण्डागार भी दिखाई पड़ता है। उनका प्रकृति-चित्रण अनावश्यक पौराणिक विवरणों एवं बालंकारिक चमत्कार से भरा हुआ है। उन्नीसवें सगं का बन्दियों द्वारा किया गया प्रभात-वर्णन इन्हीं दोषों के कारण उबाने वाला सिद्ध होता है। कुल मिलाकर नैषधमहाकाम्य कृत्रिम एवं अलंकृत शैली को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाने वाला एक महनीय प्रन्यरत्न है जो श्रीहर्ष को उच्चकोटि का कवि सिद्ध करता है। आधारग्रन्थ-१-संस्कृत साहित्य का इतिहास-पं. बलदेव उपाध्याय । २संस्कृत कवि-दर्शन-डॉ० भोलाशंकर व्यास । ३-भारतीय संस्कृति-डॉ. देवराज । ४-नैषधपरिशीलन-डॉ० चण्डिका प्रसाद शुक्ल । ५-नैषधीयचरित- डॉ० चण्डिका प्रसाद शुक्ल कृत हिन्दी टीका । श्वेताश्वतर उपनिषद्-इसका सम्बन्ध शैवधर्म एवं रुद्र से है। इसमें रुद्र का प्राधान्य प्रदर्शित करते हुए उन्हें परमात्मा से तादात्म्य किया गया है । इस उपनिषद् में ६ अध्याय हैं तथा अनेक उपनिषदों के उद्धरण प्राप्त होते हैं। विशेषतः कठोपनिषद् के। अपेक्षाकृत यह उपनिषद् अर्वाचीन है। इसकी अर्वाचीनता : प्रतिपादक तथ्य हैं, इसमें निहित वेदान्त एवं योगशास्त्र के सिद्धान्त । इसके प्रथम अध्याय में जगत् के कारण, जीवन का हेतु एवं सबके आधार के सम्बन्ध में ऋषियों द्वारा प्रश्न पूछे गए हैं तथा एकमात्र परमात्मा को ही जगत् का आधार माना गया है । द्वितीय अध्याय में योग का विस्तारपूर्वक विवेचन तथा तृतीय, चतुर्थ एवं पंचम अध्यायों में शैवसिद्धान्त एवं सांख्य-तत्त्व का निरूपण है। अन्तिम अध्याय में परमेश्वर तथा गुरु में श्रद्धा-भक्ति दिखाने का वर्णन एवं गुरुभक्ति का तत्व निरूपित है। इसका मुख्य लक्ष्य है भक्ति-तत्त्व का प्रतिपादन तथा शिव को परमात्मा के रूप में उपस्थित करना-अमृताक्षरं हरः, १।१० । इसमें प्रकृत को माया तथा महेश्वर को माया का अधिपति कहा गया है जो कारण-कार्य समुदाय से सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त है-मायां तु प्रकृति विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् । तस्यावयवभूतेस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् ॥ ४।१०। षडविंश ब्राह्मण-यह 'सामवेद' का ब्राह्मण है। इसमें पांच प्रपाठक तथा प्रत्येक के कई अवान्तर खण हैं। यह 'पन्चविंशवाह्मण' का परिशिष्ट ज्ञात होता है इसीलिए इसका नाम षड्विंश है। इसमें भूकम्प एवं अकाल में पुष्प, लता तथा फल उत्पन्न होने तथा अन्य उत्पातों के शमन की विधि वर्णित है। इसके प्रथम काण्ड के प्रारम्भ में ऋत्विजों के वेष के वर्णन में कहा गया है कि वे लाल पगड़ी एवं लाल किनारी के वस्त्रों को धारण करते थे-३८।२२। इस उपनिषद् में ब्राह्मणों के लिए सन्ध्या-वन्दन का समय अहोरात्र का सन्धिकाल बताया गया है-तस्माद् ब्राह्मणोऽहोरात्रस्य संयोग सन्ध्यामुपास्ते, ४०४। शंकरचेतोविलास चम्पू-इस चम्पू-काव्य के रचयिता शंकर दीक्षित (संकर मित्र) है। इनका समय १७७०ई० से १७८१ है जो काशीनरेष चेतसिंह
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy