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________________ बोहर्ष ] ( ५९७ ) [श्रीहर्ष भाष द्वारा उदाक्ति एवं अतिशायित काव्यविधान को नैवषकार ने परमोत्कर्ष प्रदान किया है। संस्कृत भाषा पर तो मानो इनका असाधारण अधिकार है और वाणी कवि की वशत्तिनी हो गयी है। इनमें नवीन भावों, आकर्षक कल्पनामों, नवे शब्द-संगठनों, व्यंजनाओं एवं चित्रों को उत्सृष्ट करने की अद्भुत क्षमता दिखाई पड़ती है। श्रीहर्ष ने युगीन सांस्कृतिक चेतना को आत्मसात करते हुए अपनी संवेला को उससे प्रभाषित किया है। इनमें कुछ नवीन कहने की प्रवृत्ति अत्यधिक बलवती है। वकालीन ह्रासोन्मुखी हिन्दूसमाज की भावनाओं का चित्रण नैषध में पूरे प्रकर्ष पर है। इस संबंध में डॉ. देवराज का कथन ध्यातव्य है-'श्रीहर्ष का सौन्दर्यबोष तथा नीतिबोध बहत दूर तक परम्परा का-उत्कर्षकालीन उदात्त परम्परा का अनुसरण करता है। ऐसे बोध के प्रकाशन में जहां-तहां पर्याप्त नवीनता तथा चमत्कार है। किन्तु इस बोध के साथ वह अपने युग के विशिष्ट बोध को अनजाने ही मिश्रित कर देता है, जिससे प्रसंगविशेष का समग्र प्रभाव मिश्रित, कुछ घटिया कोटि का बन जाता है। कहने का मतलब यह कि 'नैषधीयचरित' में ऊंचे तथा घटिया सौन्दर्य-बोध का संकुल मिश्रण है। जहां उसे बढ़िया सौन्दर्य-बोध का स्रोत भारतीय काव्य की उदात्त परम्परा है, वहाँ मानना चाहिए कि उस बोध की कमियों तथा बिह्मतामों का हेतु उसके युग का अपेक्षाकृत निचला सांस्कृतिक धरातल है।' भारतीय संस्कृति पृ० १७० । श्रीहर्ष मुख्यतः श्रृंगार रस के कवि हैं और उन्होंने विषयक विविध भंगियों एवं स्वस्पों का अत्यन्त कुशलता के साथ वर्णन किया है इन्होंने श्रृंगार-वर्णन में (दर्शनों के प्रगाढ़ अनुशीलन की भांति ) स्थान-स्थान पर वात्स्यायन का भी गंभीर अध्ययन प्रदर्शित किया है । उन्होंने अठारहवें तथा बीसवें सर्ग के रति केलि के वर्णन में, अनेक स्थलों पर, अपने कामशास्त्रीय ज्ञान का प्रदर्शन करते हुए अनेक प्रस्तुत विधान किये हैं। सप्तम सगं में किया गया दमयन्ती का नखशिख वर्णन विलासमय चित्रों से आपूर्ण है तथा कतिपय स्थलों पर तो मर्यादा का भी अतिक्रमण कर दिया गया है। सोलहवें सगं के ज्योनार-वर्णन में वारस्त्रियों की चेष्टाओं का अश्लील चित्रण इसका प्रमाण है । घृतप्लुते भोजनभाजने पुरः स्फुरत्पुरंध्रीप्रतिबिम्बिताकृतेः। युवा निधायोरसि लड्डुकढयं नखैलिलेखाथ ममदं निदंयम् ॥ १६॥१०३ । 'युवक के सामने घी चिकने चमकते भोजन-पात्र में सुन्दरी का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है। युवक ने उस प्रतिबिम्ब के वक्षःस्थल दो लड्डू रखकर उन्हें नख से कुरेदना प्रारम्भ किया, और अन्त में सुन्दरी के देखते हुए उन दोनों लड्डुओं को निर्दयता के साथ मसल डाला।' ___अप्रस्तुत विधान की दूरारूढ़ता के कारण कहीं-कहीं उनका विप्रलम्भ-वर्णन इस प्रकार भाराकान्त हो गया है कि वियोग की अनुभूति भी नहीं हो पाती। नखशिखवर्णन की बहुलता नैषध की अन्यतम विशेषता है। कवि ने नल एवं दमयन्ती दोनों का ही नखशिख-वर्णन किया है। इनका नखशिख-वर्णन कथा के प्रवाह का अवरोधक तो है ही, साथ-ही-साथ पिष्टपेषण भी करने वाला है, जिससे पाठक का मन ऊबने लगता है। अप्रस्तुत-विधान के तो श्रीहर्ष अक्षय भंडार हैं और इस गुण के कारण वे सभी कवियों में अग्रणी सिद्ध होते हैं। उन्होंने उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, अपहति आदि अलंकारों
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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