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________________ वेणीसंहार] (५१९) [ वेणीसंहार नायकत्व खण्डित नहीं होता। इस नाटक का नामकरण प्रमुख घटना पर हुआ है किन्तु वही इसका 'फल' नहीं है। इसका फल द्रौपदी का 'वेणीसंहार' न होकर 'शत्रुसंहार' एवं राज्य की प्राप्ति है। तथा इन दोनों के ही भोक्ता महराज युधिष्टिर हैं । भरत वाक्य का कथन करने वाला व्यक्ति ही नायक होता है और इस नाटक में यह कार्य युधिटिर द्वारा सम्पादित कराया गया है, अतः इनके नायक होने में किसी प्रकार की द्विधा नहीं रह जाती। विश्वनाथ ने अपने 'साहित्य-दर्पण' में युधिष्टिर को ही 'वेणीसंहार' का नायक माना है। परम्परा के विचार से युधिष्टिर ही इसके नायक सिद्ध होते हैं, पर कवि ने इनके चरित्र को पूर्णरूप से उभरने नहीं दिया है और नायक के चरित्र की पूर्ण उपेक्षा की है। युधिष्ठिर नाटक के अन्तिम अंक में ही सामने आते हैं, शेष अंकों में इनका व्यक्तित्व ओझल रहता है तथा प्रथम एवं पंचम अक में इनका उल्लेख नेपथ्य से होता है। निष्कर्ष यह कि परम्परा के विचार से भले ही इसके नायक युधिष्ठिर हों किन्तु कवि ने इनके नायकोचित विकास पर ध्यान नहीं दिया है। वस्तु-योजना'-वेणीसंहार' संस्कृत के उन नाटकों में है जिसमें शास्त्रीयता का पूर्ण निर्वाह है तथा नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थों में इसे उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। सन्धियों, अर्थप्रकृतियों एवं अवस्थाओं का इसमें सफल नियोजन किया गया है। पर, सन्ध्यङ्गों की योजना के सम्बन्ध में विहानों को कतिपय त्रुटियां दिखाई पड़ती हैं । उदाहरणस्वरूप-नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थों में मुखसन्धि के अंगों के पूर्व ही विलोभन' का उल्लेख किया जाता है तत्पश्चात् प्राप्ति का, पर 'वेणीसंहार' में पहले प्राप्ति का उदाहरण मिलता है तदुपरान्त विलोभन का। इसी प्रकार का व्यतिक्रम अन्य सन्धियों में भी दिखाई पड़ता है। इस नाटक का प्रधान कार्य है द्रौपदी का वेणी बांधना और इसका बीज है युधिष्ठिर का क्रोध । क्योंकि जब तक वे क्रोधित नहीं होते युद्ध की घोषणा सम्भव नहीं थी। 'वेणीसंहार' के प्रथम अंक के अन्तर्गत 'स्वस्था भवन्तु मयि जीवति धार्तराष्ट्राः' भीम के इस कथन से लेकर 'क्रोधज्योतिरिदं महत्कुरुवने यौधिष्ठिरं जम्भते' ( ११२४ ) तक युधिष्ठिर के क्रोधस्वरूप बीज सूचित होता है, अतः प्रथम अंक में मुखसन्धि का विधान है। द्वितीय अंक में प्रतिमुख सन्धि दिखाई गयी है, जहां युधिष्ठिर का क्रोधरूपी बीज बिन्दु के रूप में प्रसरित होता है। तृतीय अंक में गर्भसन्धि है और यह पंचम अङ्क तक रहती है। छठे अङ्क में अवमर्श तथा निर्वहण दोनों सन्धियां चलती हैं। प्रारम्भ में युधिष्ठिर की सन्देहास्पद अवस्था दिखाई पड़ती है और वह स्थिति भीम के पहचाने जाने तक चलती है, किन्तु कंचुकी द्वारा भीमसेन के पहचाने जाने पर निम्हण सन्धि माती है और उसका विधान अन्त तक होता है । इस प्रकार शास्त्रीय दृष्टि से 'इस नाटक की कथावस्तु की योजना उपयुक्त प्रतीत होती है। पर नाटकीय दृष्टि से इसमें कतिपय दोष दिखाई पड़ते हैं । इस नाटक की प्रमुख घटना है दुर्योधन की जांघ तोड़कर भीम द्वारा द्रौपदी की वेणी को संजाना, पर इसमें महाभारत की सम्पूर्ण कथा का नियोजन कर नाटककार ने कथानक को विशृंखल कर दिया है। इसमें अनेक असम्बद्ध घटनाओं का भी नियोजन कर दिया गया है, जिससे मूलकार्य तथा कथा की गति में व्यवधान उपस्थित हो जाता है। कार्य-व्यापार के
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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