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________________ वराहमिहिर] ( ४८५ ) [वराहमिहिर है। द्वितीय उन्मेष में षड्विधवक्रता का विस्तारपूर्वक वर्णन है। वे हैं-रूढ़िवक्रता, पर्यायवक्रता, उपचारवक्रता, विशेषणवक्रता, संवृतिवक्रता एवं वृत्तिवैचित्र्यवक्रता । इन वक्रताओं के कई अवान्तर भेद भी इसी उन्मेष में वर्णित हैं। इस उन्मेष में वर्णविन्यासवक्रता, पदपूर्वाधवक्रता एवं प्रत्ययवक्रता का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए इनके अवान्तर भेद भी कथित हैं । [ कुन्तक के अनुसार वक्रोक्ति के मुख्य छह भेद हैं-वर्णविन्यामवक्रता, पदपूर्वाधवक्रता, पदपराधवक्रता, वाक्यवक्रता, प्रकरणवक्रता एवं प्रबन्धवक्रता । इनका निर्देश प्रथम उन्मेष में है ] 1 तृतीय उन्मेष में वाक्यवक्रता का विवेचन है और चतुर्थ उन्मेष में प्रकरणवक्रता एवं प्रबन्धवक्रता का निरूपण किया गया है। 'वक्रोक्तिजीवित' में ध्वनि सिद्धान्त का खण्डन कर उसके भेदों को वक्रोक्ति में ही अन्तर्भूत किया गया है और वक्रोक्ति को ही काव्य की आत्मा के रूप में मान्यता प्रदान की गयी है । इस ग्रन्थ का सर्वप्रथम सम्पादन डॉ० एस० के० डे ने किया था जिसका तृतीय संस्करण प्रकाशित हो चुका है। तत्पश्चात् आचार्य विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणि ने हिन्दी भाष्य के साथ 'वक्रोक्ति जोधित' को प्रकाशित किया ( १९५५ ई० में )। इसका अन्य हिन्दी भाष्य चोखम्बा विद्याभवन से निकला है। भाष्यकर्ता हैंपं० राधेश्याम मिश्र । वराहमिहिर भारतीय ज्योतिषशास्त्र के अप्रतिम आचार्य। इनका जन्मसमय ५०५ ई. है। भारतीय ज्योतिविदों में वराहमिहिर अप्रतिम प्रतिभा सम्पन्न आचार्य माने जाते हैं। इनका सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है 'बृहज्जातक'। इनके द्वारा रचित अन्य ग्रन्थ हैं-पञ्चसिद्धान्तिका, बृहत्संहिता, लघुजातक, विवाह-पटल, योगयात्रा तथा समाससंहिता। बृहज्जातक में लेखक ने अपने विषय में जो कुछ लिखा है उससे ज्ञात होता है कि इनका जन्मस्थान कालपी या काम्पिल्ल था। इनके पिता का नाम आदित्यदास था जिनसे वराहमिहिर ने ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया था और उज्जैनी में जाकर 'बृहज्जातक' का प्रणयन किया । ये महाराज विक्रमादित्य के सभारत्नों ( नवरत्नों) में से एक माने जाते हैं। इन्हें 'त्रिस्कन्ध ज्योतिशास्त्र का रहस्यवेत्ता तथा नैसगिक कवितालता का प्रेमाश्रय' कहा गया है। वराहमिहिर ने ज्योतिषशास्त्र को तीन शाखाओं में विभक्त किया था। प्रथम को तन्त्र कहा है जिसका प्रतिपाद्य है सिद्धान्तज्योतिष एवं गणित सम्बन्धी आधार। द्वितीय का नाम होरा है जो जन्म-पत्र से सम्बद्ध है। तृतीय को संहिता कहते हैं जो भौतिक फलित ज्योतिष है। इनको 'बृहत्संहिता' फलित ज्योतिष को सर्वमान्य रचना है जिसमें ज्योतिशास्त्र को मानव जीवन के साथ सम्बद्ध कर उसे व्यावहारिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया गया है। इनकी असाधारण प्रतिभा की प्रशंसा पाश्चात्य विद्वानों ने भी की है। इस ग्रन्थ में सूर्य की गतियों के प्रभावों, चन्द्रमा में होने वाले प्रभावों एवं ग्रहों के साथ उसके सम्बन्धों पर विचार कर विभिन्न नक्षत्रों का मनुष्य के भाग्य पर पड़नेवाले प्रभावों का विवेचन है। 'योगयात्रा' में राजाओं के युद्धों का ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि से विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। इनके ग्रन्थों की शैली प्रभावपूर्ण एवं कवित्वमयी है। उनके आधार पर ये उच्चकोटि के कवि सिद्ध होते हैं। 'बृहज्जातक' में लेखक ने अनेकानेक यवन ज्योतिष
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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