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________________ राजशेखर ] ( ४६४ ) [ राजशेखर रचयितुं वाचं सतां संमतां, व्युत्पत्ति परमामवाप्तुमवधि लब्धुं रसस्रोतसः । भोक्तुं स्वादु फलं च जीविततरोर्यद्यस्ति ते कौतुकं तद् भ्रातः शृणु राजशेखरकवेः सूक्तः सुधास्यन्दिनीः । शङ्करवर्मणः । सदुक्तिकर्णामृत ५।२७।३ । ३. समाधिगुणशालिन्यः प्रसन्नपरिपक्त्रिमाः । यायावर कवेर्वाचो मुनीनामिव वृत्तयः ॥ धनपाल तिलकमंजरी ३३ । ४. स्वयं कवि की अपने सम्बन्ध में उक्ति - कर्णाटी- दशनाङ्कितः शिवमहाराष्ट्री कटाक्षाहतः प्रौढान्धीस्तनपीडितः प्रणयिनीभ्रूभङ्गविश्वासितः । लाटीबाहुविवेष्टितश्च मलयस्त्रीतर्जनीतजितः सोयं संप्रति राजशेखरकविः वाराणसीं वान्छति ॥ राजशेखर की अबतक दस रचनाओं का पता चला है, जिनमें चार रूपक, पांच प्रबन्ध एवं एक काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ है । इन्होंने स्वयं अपने षट्प्रबन्धों का संकेत किया है -- विद्धिनः षट् प्रबन्धाम् -- बालरामायण १।१२ । इन प्रबन्धों में पांच प्रबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं तथा एक 'हरविलास' का उद्धरण हेमचन्द्ररचित 'काव्यानुशासन' में मिलता है । 'काव्यमीमांसा' इनका साहित्यशास्त्र विषयक ग्रन्थ है । चार नाटकों के नाम हैं‘बालरामायण', ‘बालमहाभारत', 'विद्धशाल मज्जिका' एवं 'कर्पूरमंजरी' । १ बालरामायण – इसकी रचना १० अंकों में हुई है तथा राम कथा को नाटक का रूप दिया गया है [ दे० बालरामायण ]। २. बालमहाभारत - इसका दूसरा नाम 'प्रचंडपाण्डव' भी है । इसमें महाभारत की कथा का वर्णन है । इसके दो प्रारम्भिक अंक ही उपलब्ध हैं [ दे० बाल महाभारत ]। ३. विद्धशालमब्जिका - यह चार अंकों की नाटिका है जिसमें लाट के सामन्त रामचन्द्रवर्मा की पुत्री मृगाङ्कावली का सम्राट् विद्याधर म के साथ विवाह होने का वर्णन है [ दे० विद्धशालभंजिका ] । ४. कर्पूरमंजरी - इसकी रचना चार यवनिकांतरों में हुई है, अतः यह भी नाटिका ही है, पर सम्पूर्ण रचना प्राकृत में होने के कारण इसे सट्टक कहा जाता है । राजशेखर ने स्वयं अपने को कविराज कहा है और महाकाव्य के प्रति आदर का भाव प्रकट किया है। ये भूगोल के भी महाज्ञाता थे भूगोल - विषयक 'भूवन कोष' नामक ग्रन्थ की भी रचना की थी, किन्तु ग्रन्थ अनुपलब्ध है, और इसकी सूचना 'काव्यमीमांसा' में प्राप्त होती है। बहुभाषाविज्ञ थे । इन्होंने कविराज उसे कहा है जो समान अधिकार के साथ अनेक भाषाओं में रचना कर सके। इन्होंने स्वयं अनेक भाषाओं में रचना की थी । इनकी उक्ति ध्यातव्य है - गिरः श्रव्या दिव्याः प्रकृतिमधुराः प्राकृतधुराः सुभण्ष्योऽपभ्रंशः सरसरचनं भूतवचनम् । विभिन्नाः पन्थानः किमपि कमनीयाश्च त इमे निबद्धा यस्त्वेषां स खलु निखिलेऽस्मिन् कविवृषा ॥ राजशेखर की रचनाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है। कि वे नाटककार की अपेक्षा कवि के रूप में अधिक सफल हैं । 'बालरामायण' की विशालता उसे अभिनेय होने में बाधक सिद्ध होती है । इन्होंने प्रदर्शन कर इस नाटक में अपनी अद्भुत काव्य-क्षमता का परिचय गुण उसके नाटकीय रूप को नष्ट कर देने वाला सिद्ध होता है । 'बालरामायण' में वर्णन चातुरी का दिया है, पर यही कुल ७४१ पच हैं तथा 'इनमें भी २०० पद्य शार्दूलविक्रीडित स्रग्धरावृत्त में हैं । अन्तिक अंक में कवि ने १०५ पद्यों में प्रणेताओं के और इन्होंने सम्प्रति यह राजशेखर छन्द में एवं ८६ पद्म रामचन्द्र के अयोध्या
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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