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योग-दर्शन ]
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[योग-दर्शन
हैं-शौच, संतोष, तप स्वाध्याय तथा ईश्वर-प्रणिधान । शौच से अभिप्राय बाह्य एवं आभ्यन्तर शुदि से है। ईश्वरप्रणिधान के अन्तर्गत ईश्वर का ध्यान एवं उन पर अपने को पूर्णतः आश्रित कर देना है । आसन-यह शरीर का साधन होता है । इसमें शरीर को इस प्रकार की स्थिति के योग्य बना दिया जाता है, जिससे कि वह निश्चल होकर सहज रूप से देर तक स्थिर रह सके । चिन की एकाग्रता एवं अनुशासन के लिए आसन का विधान किया जाता है, जिसके कई भेद होते हैं-पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, सिद्धासन, शीर्षासन, गरुड़ासन, मयूरासन तथा शवासन आदि। योगासनों के द्वारा शरीर नीरोग हो जाता है और उसमें समाधि लगाने की पूर्ण क्षमता उत्पन्न हो जाती है। इसके द्वारा सभी अंगों को वश में किया जा सकता है तथा मन में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न नहीं होता।
प्राणायाम-श्वास-प्रश्वास के नियन्त्रण को प्राणायाम कहते हैं। इसके तीन अंग हैं-पूरक ( भीतर की ओर श्वास खींचना), कुम्भक ( श्वास को भीतर रोकना) तथा रेचक ( नियत रूप से स्वास छोड़ना)। प्राणायाम के द्वारा शरीर स्वस्थ होता है और मन में दृढ़ता आती है। प्रत्याहार-इन्द्रियों को बाह्यविषयों से हटाकर उन्हें अपने वश में रखने को प्रत्याहार कहते हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार योग के बहिरंग साधन माने जाते हैं तथा धारणा, ध्यान एवं समाधि को अन्तरंग साधन कहा जाता है। धारणा--चित्त को अभीष्ट विषय पर केन्द्रस्थ करना धारणा है । योगदर्शन में 'चित्त का देश में बांधना' ही धारणा है । किसी विषय पर चित्त को दृढ़तापूर्वक केन्द्रित करने के अभ्यास से समाधि में बड़ी सहायता मिलती है। ध्यान-ध्येय के निरन्तर मनन को ध्यान कहा जाता है। इस स्थिति में विषय का अविच्छिन्न ज्ञान होता रहता है और विषय अत्यन्त स्पष्ट होकर मन में चित्रित हो जाता है। योगी ध्यान के द्वारा ध्येय पदार्थ का यथार्थ रूप प्राप्त कर लेता है। समाधि-योगासन की चरम परिणति समाधि में होती है और यह इस विषय की अन्तिम स्थिति है। इस अवस्था में आकर मन की, ध्येय वस्तु के प्रति, इतनी अधिक तन्मयता हो जाती है कि उसे उसके अतिरिक्त कुछ भी ज्ञात नहीं होता और ध्येय में ही अपने को लीन कर देता है । यह अवस्था ध्येय विषय में आत्मलीन कर देने की है। समाधिस्थ होने पर योगी को यह भी ध्यान नहीं रहता कि वह किसके ध्यान में लगा हुआ है।
योगाभ्यास करने पर योमियों को नाना प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं, जिनकी संख्या आठ है । अणिमा ( अणु के समान छोटा या अदृश्य होना), लधिमा ( अत्यन्त हल्का होकर उड़ने की शक्ति प्राप्त करना), महिमा ( पर्वत की भांति बड़ा बन जाना), प्राप्ति ( इच्छित फल को जहाँ से चाहे वहां से प्राप्त कर लेना), प्राकाम्य ( योगी की इच्छा शक्ति का बाधारहित हो जाना), वशित्व (सब जीवों को वश में करने की शक्ति प्राप्त करना), यत्र कामावासायित्व ( योगी के संकल्प की सिद्धि), योग-दर्शन का स्पष्ट निर्देश है, कि योगी सिद्धियों के आकर्षण में न पड़कर केवल मोक्ष का.प्रयास करे। यदि वह इनके चाक्यचिक्य में पड़ेगा तो योगभ्रष्ट हो जायगा। इसका अन्तिम लक्ष्य बात्म-दर्शन है।