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भोग]
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[भोज
अनेक ऐसी बातों का भी विवेचन है जिनका अभाव उक्त ग्रन्थ (चरक) में है। इसमें 'सुश्रुतसंहिता' (दे० सुश्रुतसंहिता) की भांति कुष्ठरोग में खदिर के उपयोग पर भी बल दिया गया है। इसका हृदय-वर्णन सुश्रुत से साम्य रखता है-पुण्डरीकस्य संस्थानं कुम्भिकायाः फलस्य च । एतयोरेव वणं च विभत्ति हृदयं नृणाम् ॥ यथाहि संवृत्तं पचं रात्री चाहनि पुष्यति । हत्तदा संवृत्तं स्वप्ने विवृत्तं जाग्रतः स्मृतम् ॥ भेल. सूत्रसंस्थान अ० २१ ।
बाधारग्रन्थ-आयुर्वेद का बृहत इतिहास-अत्रिदेव विद्यालंकार ।
भोज-धारानरेश महाराज भोज ने अनेक शास्त्रों का निर्माण किया है। इनका समय एकादश शतक का पूर्वाद है। इन्होंने ज्योतिष-सम्बन्धी 'राजमृगांक' नामक अन्य की रचना १०४२-४३ ई० में की थी। इनके पितृव्य मुंज की मृत्यु ९९४ से ९९७ ई. के मध्य हुई थी। तदनन्तर इनके पिता सिन्धुराज शासनासीन हुए और कुछ दिनों तक गद्दी पर रहे । भोज के उत्तराधिकारी जयसिंह नामक राजा का समय १०५५-५६ ई० है क्योंकि उनका एक शिलालेख मान्धाता नामक स्थान में उपयुक्त ई० का प्राप्त होता है। अतः भोज का समय एकादश शतक का पूर्वाद्धं उपयुक्त है। राजा भोज की विद्वता एवं दानशीलता इतिहास प्रसिद्ध है। 'राजतरंगिणी' में काश्मीर. नरेश अनन्तराज एवं मालवाधिपति भोज को समान रूप से वित्प्रिय बताया गया हैस च भोजनरेन्द्रश्च दानोत्कर्षेण विश्रुती । सूरी तस्मिन् क्षणे तुल्यं द्वावास्तां कविबान्धवी।। ७।२५९ । भोजराज ने ८४ ग्रन्यों का प्रणयन किया है और विविध विषयों पर समान अधिकार के साथ लेखनी चलायी है। धर्मशास्त्र, ज्योतिष,, योगशास्त्र, वैद्यकशास्त्र, ध्याकरण, काव्यशास्त्र आदि विषयों पर इन्होंने ग्रन्थ लिखे हैं। इन्होंने 'शृङ्गारमंजरी' नामक कथा-काव्य एवं 'मन्दारमरन्दचम्पू' नामक चम्पू काव्य का भी प्रणयन किया है। वास्तुशास्त्र पर इनका 'समरांगणसूत्रधार' नामक अत्यन्त प्रसिद्ध ग्रन्थ है जिसमें सात हजार श्लोक हैं । 'सरस्वतीकण्ठाभरण' इनका व्याकरण-सम्बन्धी प्रसिद्ध ग्रन्थ है जो आठ प्रकाशों में विभक्त है। इन्होंने युक्तिप्रकाश एवं तरवप्रकाश नामक धर्मशास्त्रीय अन्यों की रचना की है और औषधियों के ऊपर ४१८ श्लोकों में राजमार्तण्ड नामक ग्रन्थ लिखा है। योगमन्त्र पर राजमातर' नामक इनकी टीका भी प्राप्त होती है। काव्यशास्त्र पर इन्होंने 'शृङ्गारप्रकाश' एवं 'सरस्वतीकण्ठाभरण' नामक दो प्रसिद्ध ग्रन्थ लिखे हैं जिनमें तद्विषयक सभी विषयों का विस्तृत विवेचन है। ___ इन्होंने अपने दोनों काम्यशास्त्र-विषयक अन्थों में काव्य के स्वरूप, भेद, रस, मलं. कार, नाटक, रीति, वृत्ति, साहित्य, नायक-नायिका-भेद, शब्दशक्ति, ध्वनि आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है और इनके सम्बन्ध में कई नवीन तथ्य प्रस्तुत किये हैं। इनके अनुसार काव्य के तीन प्रकार हैं-वक्रोक्ति, रसोक्ति एवं स्वभावोक्ति और इनमें रसोक्ति सर्वाधिक महत्वपूर्ण काव्य-विधा है। वक्रोक्तिश्च रसोक्तिश्च स्वभावोक्तिश्च वाङ्मयम् । सर्वासु ग्राहिणी तासु रसोक्ति प्रविजानते । सरस्वतीकण्ठाभरण ५८ । इन्होंने रस का महत्त्व स्थापित करते हुए काव्य को रसवत् कहा है और 'शृंगारप्रकाश' में रस