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________________ भास] ( ३५४ ) [भासर्वत्र दृष्टि से भी इनके नाटक उत्तम हैं। इन्होंने नवो रसों का प्रयोग कर अपनी कुशलता प्रदर्शित की है। वैसे भास मुख्यतः वीर, शृङ्गार एवं करुण रस के वर्णन में विशेष दक्ष हैं। इनका हास्य-वर्णन अत्यन्त उदात्त है और इसकी स्थिति प्रायः विदूषक में दिखलायी गयी है। इनके सभी नाटक अभिनय-कला की दृष्टि से सफल सिद्ध होते हैं। कथानक, पात्र, भाषा-शैली, देशकाल, एवं संवाद किसी के कारण उनकी अभिनेयता में बाधा नहीं पड़ती। इनके नाटक उस समय निर्मित हुए थे जब नाट्यशास्त्रीय सिद्धान्तों का पूर्ण विकास नहीं हुआ था, फलतः इन्होंने कई ऐसे दृश्यों का भी विधान किया है जो शास्त्रीय दृष्टि से वर्जित हैं, जैसे वध, अभिषेक आदि । पर ये दृश्य इस प्रकार से गए हैं कि इनके कारण नाटकीयता में किसी प्रकार की बाधा नहीं उपस्थित होती। भास की शैली सरल एवं अलंकारविहीन अकृत्रिम है। इनकी कवित्वशक्ति भी उच्चकोटि की है। इनके सभी पद्य घटनाओं एवं पात्रों से सम्बद्ध हैं और ऊपर से जोड़े हुए स्वतन्त्र पद्यों की तरह नहीं लगते । अपने वयं-विषयों को इन्होंने अत्यन्त सूक्ष्मता के साथ रखा है। किसी दृश्य का वर्णन करते समय ये उसके प्रत्येक पक्ष को अत्यधिक सूक्ष्मता के साथ प्रदर्शित करते हैं और पाठक को उसका पूर्णरूप से विम्ब ग्रहण हो जाता है। इनका प्रकृति-वर्णन अत्यन्त स्वाभाविक एवं आकर्षक है। खगावासोपेता सलिलमवगाढो मुनिजनः प्रदीपोऽग्नि ति प्रविचरति धूमो मुनिवनम् । परिभ्रष्टो दूराद्रविरपि च संक्षिप्तकिरणो रथं व्यावासी प्रविशति शनैरस्तशिखरम् ॥ स्वप्नवासवदत्तम् १।१६ । 'सायंकाल हो रहा है। पक्षी अपने नीड़ों की ओर चले गए हैं। मुनियों ने जलाशय में स्नान कर लिया है। सायंकालीन अग्निहोत्र के लिए जलाई गई अग्नि सुशोभित हो रही है, और उसका धुआं मुनिवन में फैल रहा है। सूर्य भी रथ से उतर गया है उसने अपनी किरणें समेट ली है, और रथ को लौटाकर वह धीरे-धीरे अस्ताचल की ओर प्रविष्ट हो रहा है।' आधारपन्थ--भास ए स्टी-डॉ० पुसालकर । २-भास-ए० एच० पी० अय्यर (अंगरेजी)। ३-संस्कृत नाटक-डॉ. कीथ (हिन्दी अनुवाद)। ४-संस्कृत कवि-दर्शन-डॉ० भोलाशंकर व्यास । ५-महाकवि भास-एक अध्ययन-पं. बलदेव उपाध्याय। ६-भास नाटकचक्रम्-(हिन्दी अनुवाद सहित) चौखम्बा प्रकाशन । -भास की भाषा सम्बन्धी तथा नाटकीय विशेषताएं-डा. जगदीश दत्त दीक्षित । भासर्व-काश्मीर निवासी भासवंश ने 'न्यायसार' नामक प्रसिद्ध न्यायशास्त्रीय अन्य की रचना की है जिनका समय नवम शतक का अन्तिम चरण है। 'न्यायसार' न्यायशान का ऐसा प्रकरण ग्रन्थ है जिसमें न्याय के केवल एक ही प्रमाण का वर्णन है और शेष १५ पदार्थों को प्रमाण में ही अन्तनिहित कर दिया गया है। भासवंश ने अन्य नैयायिकों के विपरीत प्रमाण के तीन ही भेद माने हैं-प्रत्यक्ष, मनुमान और बागम । जब कि अन्य आचार्य 'उपमान' प्रमाण को भी मान्यता देते हैं। इस ग्रन्थ (न्यायसार ) की रचना नव्यन्याय की शैली पर हुई है [दे० न्यायदर्शन ] । इस पर १८ टोकाएं लिखी गई है जिनमें निम्नांकित पार टीकाएँ अत्यन्त प्रसिद्ध है
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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