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________________ बाणभट्ट ] ( ३०२ ) [ बाणभट्ट यि बाणोऽब्धिरिव लब्धवान् ॥ तिलकमंजरी - २७ । (५) सहर्षरचिता शश्वद्धृतकादम्बरीस्यदा । बाणस्य वाण्यनार्येव स्वच्छन्दा चरति क्षिती ॥ राजशेखर सु० मु० ४।६५ । ( ६ ) बाणेन हृदि लग्नेन यन्मन्दोऽपि पदक्रमः । भवेत् ( प्रायः ) कविकुरङ्गाणां चापलें तत्र कारणम् । राजशेखर सू० मु० ४।६७ । ( ७ ) दण्डिन्युपस्थिते सद्यः कवीनां कम्पतां मनः । प्रविष्टे त्वान्तरं बाणे कण्ठे वागेव रुद्धघते ॥ हरिहर, सुमा० ११ । ( ८ ) युक्तं कादम्बरीं श्रुत्वा कवयो मौनमाश्रिताः । बाणध्वनावनध्यायो भवतीति स्मृतियंतः ॥ सोमेश्वर, की० कौ० १११५ । ( ९ ) उच्छ्वासोऽपि न निर्याति बाणे हृदयवर्तिनि । किं पुनर्विकटाटोप पदबन्धा सरस्वती ॥ सु० र० की ० ५०।२३ (१०) यादृग् गद्यविधौ बाणः पद्यबन्धे न तादृशः । गव्यां गव्यामियं देवी विचित्रा हि सरस्वती || सरस्वतीकण्ठाभरण - २।२० । बाणभट्ट का समय महाराज हर्षवर्धन का शासन-काल – ६०७ ई० से ६४८ ई० तक है । बाणभट्ट अत्यन्त प्रतिभाशाली साहित्यकार हैं । इन्होंने 'कादम्बरी' की रचना कर संस्कृत कथा-साहित्य में युग-प्रवत्तन किया है । बाण की वर्णन-शैली अत्यन्त निपुण है और ये कृत्रिम आलंकारिक शैली के पक्षधर हैं। 'हर्षचरित' की प्रस्तावना में M इनकी शैली सम्बन्धी मान्यता का पता चलता है । इनके पूर्व वक्रोति-रहित स्वभा वोक्तिपूर्ण रचनाएँ प्रचलित थीं जिसे इन्होंने हेय दृष्टि से देखा है और उन्हें 'असंख्यश्वान' की संज्ञा दी है। इनके अनुसार आदर्श गद्य शैली में 'नूतन एवं चमत्कारपूर्ण अर्थ, सुरुचिपूर्ण स्वभावोक्ति, सरल श्लेष, स्पष्टरूप से प्रतीत होने वाला रस तथा अक्षरों की दृढ़बन्धता' आवश्यक है । नवाऽर्थो जातिरग्राम्या श्लेषोऽक्लिष्टः स्फुटो रसः । विकटाक्षरबन्धश्च कृत्स्नमेकत्र दुष्करम् ॥ ७ हर्षचरित प्रस्तावना । बाण ने अपने कथाकाव्य में इन तत्वों का पूर्णरूप से पालन किया है। इनमें चित्रग्राहिणी बुद्धि एवं नवीन उद्भावना की अपूर्व क्षमता थी । इन्होंने चित्र की भांति प्रत्येक विषय का वर्णन किया है । अपनी सूक्ष्मदर्शिका शक्ति के द्वारा प्रस्तुत किये गए चित्र के प्रत्येक दृश्य का सांगोपांग चित्रण करने में बाण अपनी सानी नहीं संस्कृत काव्य की निधि हैं । धनपाल ने इन्हें अमृत उत्पन्न समुद्र कहा है । "बाण वर्णनात्मक शैली के धनी हैं । • वाण के वर्णन ही उनके काव्य की निधि हैं । इन वर्णनों से उकताना ठीक नहीं। इनके भीतर बैठकर युक्ति से इनका रस लेना चाहिए। जब एकबार पाठक इन वर्णनों को अणुवीक्षण की युक्ति से देखता है तो उनमें उसे रुचि उत्पन्न हो जाती है, एवं बाण की अक्षराडम्बरपूर्ण शैली के भीतर छिपे हुए रसवाही सोते तक पहुँच जाता है । उस समय यह इच्छा होती है कि कवि ने अपने वर्णन के द्वारा चित्रपट पर जो चित्र लिखा है। . उसकी प्रत्येक रेखा सार्थक है और चित्र को समग्र रूप प्रस्तुत करने में सहायक है । जिस प्रकार रङ्गबली की विभिन्न आकृतियों से भूमि सजाई जाती है उसी प्रकार बाण ने अपने काव्य की भूमि का मण्डन करने के लिए अनेक वर्णनों का विधान किया है । महाप्रतिभाशाली इस लेखक ने अपनी विशेष प्रकार की इलेष्ममयी वर्ण रखते। इनके वर्णन करने वाला गम्भीर
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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