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अभिज्ञान शाकुन्तल]
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[अभिज्ञान शाकुन्तल
दुःखित हो जाता है। वह शकुन्तला के विरह में व्यथित होकर अपने को कोसता है । इसी बीच इन्द्र का सारथी मातलि अदृश्य होकर इस विचार से माढव्य का गला दबाता है कि विरह के कारण शान्त हुआ राजा का वीरत्व दमक उठे और वह इन्द्र पर आक्रमण करनेवाले कालनेमि प्रभृति राक्षसों का विनाश कर सके । यही बात होती भी है। राजा राक्षसों का विनाश करने के लिए प्रस्थान करता है। सप्तम अङ्क में राक्षसों का संहार कर राजा किंपुरुष पर्वत पर स्थित महर्षि मारीच के आश्रम पर जाता है। वहां उसे सिंह के साथ खेलता हुआ एक शिशु दिखाई पड़ता है। खेलते समय बालक के हाथ में बंधी हुई अपराजित नामक औषधि खुलकर गिर जाती है और उसे राजा उठा लेता है। बालक के साथ रहने वाली तपस्विनी यह देखकर आश्चर्यचकित हो जाती है कि इसके माता-पिता के अतिरिक्त यदि कोई अन्य व्यक्ति इसे उठायेगा तो वह औषधि उसे सांप बन कर काट देगी। जब वह तपस्विनी उस बालक को मिट्टी का पक्षी देकर उसे आकृष्ट करना चाहती है तब वह अपनी मां की खोज करता है। तभी शकुन्तला आती है और राजा के साथ उसका मिलन होता है और मारीच दोनों को आशीर्वाद देते हैं।
कथा का स्रोत–'शकुन्तला' की मूल कथा 'महाभारत' और 'पद्मपुराण' में मिलती है । इनमें 'महाभारत' की कथा अधिक प्राचीन है। इस कथा में सरसता नहीं है और यह सीधी-सादी तथा नीरस है। 'महाभारत' की कथा को कवि अपनी प्रतिभा एवं कल्पनाशक्ति के द्वारा सरस तथा गरिमामयो बना देता है। उसने 'महाभारत' के हीन चरित्रों को उदात्तता प्रदान कर उन्हें प्राणवन्त बना दिया है। 'महाभारत' की कथा इस प्रकार है-एक बार चन्द्रवंशी राजा दुष्यन्त आखेट करते हुए महर्षि कण्व के आश्रम में प्रविष्ट हुए। उन्होंने आश्रम में घुस कर पुकारा। उस समय कण्व की अनुपस्थिति में उनकी धर्म-पुत्री शकुन्तला ने उनका सत्कार किया तथा राजा के पूछने पर अपने जन्म की कथा उनसे कह दी। उसे क्षत्रिय कन्या जानकर राजा ने उसके प्रति अपना प्रेम प्रकट किया। शकुन्तला ने कहा कि यदि आपका उत्तराधिकारी मेरा पुत्र हो तो मैं इस शर्त पर विवाह कर सकूँगी। जब राजा ने उसका प्रस्ताव मानने का वचन दिया तो दोनों ने गन्धर्व रीति से विवाह कर लिया तथा राजा ने उसके साथ सहवास किया। वह शकुन्तला को आश्वासन देकर गया कि मैं शीघ्र ही तुम्हें बुलाने के लिए सेना भेजूंगा, पर वह रास्ते में सोचता गया कि कहीं कण्व यह बात जान लें तो मुझ पर रुष्ट न हो जायें। राजा के जाने के बाद कण्व ऋषि आश्रम में आये और तपबल से सारी घटना को जानकर शकुन्तला के गान्धवं विवाह की स्वीकृति दे दी। कुछ समय के पश्चात् शकुन्तला ने एक शिशु को जन्म दिया जो ६ वर्ष का होकर अपने पराक्रम से सिंह के साथ खेलने लगा। नौ वर्ष से अधिक शकुन्तला को अपने यहाँ रखना उचित न मान कर ऋषि ने उसे पुत्र सहित कुछ तपस्वियों के साथ दुष्यन्त की राजधानी में भेज दिया। दुष्यन्त ने शकुन्तला एवं उसके पुत्र को अपरिचित बता कर उन्हें स्वीकार नहीं किया। जब शकुन्तला जाने को तैयार हुई तब उसी समय