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________________ ज्योतिषशास्त्र ] ( १८९ ) अन्धकारकाल – ई० पू० १०००० वर्ष के पहले का समय । उदयकाल - ई० पू० १०००० ई० पू० ५०० तक । आदिकाल - ई० पू० ४९९ - ई० ५०० तक । पूर्व मध्यकाल - ई० ५०१ - ई० १००० तक । उत्तर मध्यकाल — ई० १००१ - ई० १६०० तक । आधुनिककाल - ई० १६०१ - ई० १९४६ तक । क्षयमास, वेदमन्त्रों में ज्योतिषशास्त्र के अनेक सूत्र बिखरे हुए हैं और इन सूत्रों की व्याख्या के आधार पर कालान्तर में बृहदशास्त्र का निर्माण हुआ । 'ऋग्वेद' के एक मन्त्र में ( १, १६४, ११ ) बारह राशियों की गणना के द्वारा ३६० दिन के वर्ष का वर्णन है जो ज्योतिष की राशि चक्र गणना की प्राचीन स्थिति का द्योतक है । डॉ० शामशास्त्री ने 'वेदांगज्योतिष' नामक ग्रन्थ की भूमिका में सिद्ध किया है कि अयन, मलमास, नक्षत्रभेद, सौरमास, चान्द्रमास प्रभृति ज्योतिष संबंधी विषय वेदों के ही समान प्राचीन हैं । 'ऋग्वेद' में समय - ज्ञान की सीमा के लिए 'युग' का प्रयोग किया गया है और 'वैत्तिरीयसंहिता' में पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्यो, सूर्य तथा चन्द्रादि ग्रहों पर विचार करते हुए सूर्य का आकाशमण्डल की परिक्रमा करने का वर्णन है । उसी प्रकरण में बतलाया गया है कि चन्द्रमा नक्षत्रमण्डल की परिक्रमा करता है और वायु अन्तरिक्षलोक की । वहाँ अग्नि पृथ्वी स्थानीय कहे गए हैं । [ तैत्तिरीय संहिता ७।५।१३ ] 'ऋग्वेद' में कृतिका नक्षत्र से काल-गणना का निर्देश एवं 'अथर्ववेद' में अट्ठाईस नक्षत्रों के नाम एवं उनके आधार पर काल-गणना के संकेत है। 'ऋग्वेद' में बारह राशियाँ मानी गयी हैं । [ दे० अथर्ववेद संहिता १९ । २२ तथा ऋग्वेद संहिता १।१६४।११,४९ ] ब्राह्मण, उपनिषद् आदि में संहिताओं की अपेक्षा ज्योतिषशास्त्र के विभिन्न अंगों कां विस्तारपूर्वक विवेचन प्राप्त होता है । ब्राह्मणों में नक्षत्र का तैत्तिरीय ब्राह्मण ( १२/३ ) में प्रजापति नक्षत्र के प्रतीक माने गए हैं और चित्रा, हस्त, स्वाति आदि नक्षत्रों को उनका अंग कहा गया है। इसी प्रकार 'कल्पसूत्र', 'निरुक्त', 'अष्टाध्यायी' आदि ग्रन्थों में भी ज्योतिष के तत्त्व उपलब्ध होते हैं । वैदिक युग में मास, ऋतु, अयन, वर्ष, ग्रहकक्षा, नक्षत्र, राशि, ग्रहण, दिनवृद्धि आदि से सम्बद्ध बड़े ही प्रामाणिक तथ्य प्राप्त होते हैं । आदि युग में आकर इस विषय पर स्वतन्त्र तक आकर शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, प्रकट हो चुके थे। हुई जिसके संग्रहकर्ता सुन्दर वर्णन है । इस युग में 'वेदांग - लगध नामक ऋषि रूप से ग्रन्थालेखन होने लगता है। इस युग ज्योतिष एवं छन्द ( वेदांग के छह अंग ) ज्योतिष' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना हैं । इसका संकलन -काल ई० पू० ५८० के आस-पास है । यह ज्योतिषशास्त्र का प्रारम्भिक ग्रन्थ है । [ दे० वेदांयज्योतिष ] ई० १००-३०० तक ज्योतिषशास्त्र का विकास अधिक हो चुका था और इस समय तक इस शास्त्र के प्रवत्र्तक १८ आचार्यो का प्रादुर्भाव हो चुका था । इन आचार्यों के नाम हैं- सूर्य, पितामह, व्यास, वसिष्ठ, अत्रि, पराशर, काश्यप, नारद, गगं, मरीचि, मनु, अंगिरा, लोमश, पुलिश, च्यवन, भृगु एवं शौनक । उपर्युक्त आचार्यों के अतिरिक्त अन्य ज्योतिषशास्त्रियों ने भी इस [ ज्योतिषशास्त्र
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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