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________________ कणाद ] ( ९५ ) [ कणाद के पश्चात् कर्ण को सेनापति बनाया जाता है, अतः इसे 'कर्णभार' कहा गया है । सर्वप्रथम सूत्रधार का रंगमंत्र पर आना वर्णित है । सेनापति बनने पर कर्ण अपने सारथी शल्य को अर्जुन के रथ के पास उसे ले चलने को कहता है । वह मार्ग में अपनी अस्त्र-प्राप्ति वृत्तान्त तथा परशुराम के साथ घटी घटना का कथन करता है । उसी समय नेपथ्य से एक ब्राह्मण की आवाज सुनाई पड़ती है कि 'मैं बहुत बड़ी भिक्षा माँग रहा हूँ । ब्राह्मण और कोई नहीं इन्द्र हैं, जो करणं से कवच-कुण्डल मांगने के लिए आये थे । पहले तो कर्ण देने से हिचकिचाता है और ब्राह्मण को सुवर्ण एवं धन मांगने के लिए कहता है । पर, ब्राह्मण अपने हठ पर अड़ा कवच की मांग करता है । कणं अपना कवच-कुण्डल दे देता है 'विमला' शक्ति प्राप्त होती है । तत्पश्चात् कर्ण और शल्य अर्जुन के जाते हैं और भरतवाक्य के पश्चात् नाटक समाप्त हो जाता है । इसमें कवि ने घटनाओं की सूचना कथोपकथन के रूप में देकर इसकी नाटकीयता की रक्षा की है । यद्यपि इसका वण्यं विषय युद्ध और युद्ध भूमि है तथापि इसमें करुण रस का ही प्राधान्य है | कणादद- वैशेषिकदर्शन के प्रवत्र्तक । प्राचीन ग्रन्थों में इनके विभिन्न नाम ( कणभुक्, कषभक्ष ) प्राप्त होते हैं । उदयनाचार्य ने ( न्यायदर्शन के आचार्य ) अपनी रचना 'किरणावली' में कणाद को कश्यम मुनि का पुत्र कहा है । श्रीहर्षकृत 'नैषध महाकाव्य ' ( २२।२६ ) में वैशेषिक दर्शन की अभिधा ओलूक दी गयी है । 'वायुपुराण' में कणाद शिव के अवतार एवं सोमशर्मा के शिष्य ( प्रभासनिवासी ) कहे गए हैं तथा 'त्रिकाण्डकोष' में इनका अन्य नाम 'काश्यप' दिया गया है । इस प्रकार उपर्युक्त वर्णनों के आंधार पर कणाद काश्यपगोत्री उलूक मुनि के पुत्र सिद्ध होते हैं । इनके गुरु का नाम सोमशर्मा था । रहता है और अभेद्य और उसे इन्द्र द्वारा रथ की ओर L इन्होंने 'वैशेषिकसूत्र' की रचना की है, जो इस दर्शन का मूल ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ दस अध्यायों में है जिसमें कुल ३७० सूत्र हैं । इसका प्रत्येक अध्याय दो आह्निकों में विभक्त है । इसके प्रथम अध्याय में द्रव्य, गुण एवं कर्म के लक्षण एवं विभाग वर्णित हैं । द्वितीय अध्याय में विभिन्न द्रव्यों एवं तृतीय में नौ द्रव्यों का विवेचन है । चतुर्थ अध्याय में परमाणुवाद का तथा पंचम में कर्म के स्वरूप और प्रकार का वर्णन है । षष्ठ अध्यम में नैतिक समस्याएँ एवं धर्माधर्म-विचार है तो सप्तम का विषय है गुणविवेचन | अष्टम, नवम तथा दशम अध्यायों में तकं, अभाव, ज्ञान और सुखदुःखविभेद का निरूपण है । वैशेषिकसूत्रों को रचना न्यायसूत्र से पहले हो चुकी थी, इसका रचना-काल ई० पू० ३०० शतक माना जाता है। 'वैशेषिकसूत्र' पर सर्वाधिक प्राचीन भाष्य 'रावणभाष्य' था, पर यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता और इसकी सूचना ब्रह्मसूत्रशंकरभाष्य की टीका 'रत्नप्रभा' में प्राप्त होती है । भरद्वाज ने भी इस पर वृत्ति की रचना की थी, किन्तु वह भी नहीं मिलती । 'वैशेषिकसूत्र' का हिन्दी भाष्य पं० श्रीराम शर्मा ने किया है। इस पर म० म० चन्द्रकान्त तर्कालंकार कृत अत्यन्त उपयोगी भाष्य है जिसमें सूत्रों की स्पष्ट व्याख्या है ।
SR No.016140
Book TitleSanskrit Sahitya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajvansh Sahay
PublisherChaukhambha Vidyabhavan
Publication Year2002
Total Pages728
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size20 MB
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