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आप श्री का जन्म भोपाल में सं. 1934 में हुआ। आपके पिता का नाम श्रीमान केवलचन्द जी कांसटिया और माता का नाम श्रीमती हुलासीबाई था। आपकी बाल्यावस्था में ही आपकी मातेश्वरी का निधन हो गया। जब आप दस वर्ष के थे तब पहले आपके पिताश्री ने और बाद में आपने मुनिधर्म अंगीकार कर लिया। पण्डित रत्न श्री रत्नऋषि जी म. के सान्निध्य में रहकर आपने हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, पाली, अपभ्रंश आदि भाषाओं का गहन अध्ययन किया। तदनन्तर आपने आगमों का तलस्पर्शी अध्ययन और मनन किया। जैनेतर दर्शनों का भी आपने काफी अध्ययन किया। ___आपश्री की आगम रुचि अद्भुत थी। आपका चिन्तन था कि आगम ज्ञान सर्वगम्य बने। परन्तु आगमों की भाषा अर्धमागधी होने से वे सर्वगम्य नहीं बन सकते थे। आपने दृढ़ संकल्प के साथ आगमों का हिन्दी अनुवाद कार्य प्रारंभ किया। निरन्तर तीन वर्ष तक एकासने की तपस्या करते हुए आपने यह गुरुतर कार्य पूर्ण किया। आगमों का सर्वप्रथम हिन्दी भाषा में रूपान्तरण आपश्री ने ही किया। आप द्वारा अनुवादित आगमों का प्रकाशन सेठ ज्वालाप्रसाद जी ने कराया और निशुल्क बत्तीसी का वितरण सभी जैन स्थानकों में किया। आपश्री ने 'जैन तत्व प्रकाश' प्रभृति 101 ग्रन्थों का लेखन संकलन किया।
वि.सं. 1989 में इन्दौर में आप ऋषि सम्प्रदाय के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए।
आपश्री जी जहां प्रकाण्ड पण्डित मुनिराज थे, वहीं विनय की प्रतिमूर्ति भी थे। सं. 1989 में अजमेर में बहद मनि सम्मेलन हआ। उस समय की घटना है। प्रातःकाल अन्धेरे में ही एक मनि आते और क्रमशः सभी छोटे-बडे संतों को वन्दन कर अपने स्थान पर लौट जाते। यह क्रम कई दिनों तक चला। आखिर जिज्ञासा होने पर एक प्रमुख संत ने आपका अनुगमन किया। सत्य से परिचित होकर वे मुनि दंग रह गए।
आपके चरणों में नत होकर उन्होंने पूछा, आचार्य देव ! आप छोटे-बड़े सभी संतों को वन्दन करते हैं, ऐसा किसलिए ?
आप ने सहजता से कहा, मुनिवर ! संत तो संत होता है। उसमें क्या छोटा और क्या बड़ा ! कौन जाने कौन आत्मा निकट भवी है। संतों को वन्दन कर मैं अपनी आत्मा को हल्की कर रहा हूं।
आपकी विनयवृत्ति की यह चर्चा सकल संघ में हुई। सभी ने आपकी विनय वृत्ति की मुक्त कण्ठ से अनुशंसा की।
वि.सं. 1993 में धूलिया नगर (महाराष्ट्र) में आपका स्वर्गवास हो गया। अयवंती सुकुमाल
अयवंती सुकुमाल प्रथम स्वर्ग के नलिनीगुल्म विमान से च्यव कर उज्जयिनी नगरी के कोटीश्वर श्रेष्ठी धन की धर्मपत्नी भद्रा की रत्नकुक्षी से उत्पन्न हुआ था। वह अत्यन्त सुकोमल बालक था, इसीलिए उसे अयवंती सुकुमाल नाम दिया गया था। यौवनकाल में बत्तीस श्रेष्ठी-कन्याओं से उसका पाणिग्रहण हुआ। कुमार सुखपूर्वक जीवन यापन करने लगा।
किसी समय आर्य सुहस्ति उज्जयिनी पधारे और वे अयवंती सुकुमाल के महल के नीचे उसकी वाहनशाला में ठहरे। एक बार रात्रि के अन्तिम प्रहर में आचार्य देव स्वाध्याय कर रहे थे। वे नलिनीगुल्म विमान के अधिकार का सस्वर पाठ कर रहे थे। कुमार ने इसे सुना। यह स्वर उसे अत्यन्त कर्णप्रिय लगा। वह नीचे आकर आचार्य देव के पास बैठ गया और एकाग्रचित्त से इसे सुनने लगा। सुनते-सुनते उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उसने जान लिया कि वह नलिनीगुल्म विमान से च्यव कर यहां आया है। वहां भोगे गए सुखों से ... जैन चरित्र कोश ..
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