________________
उपसर्ग उपस्थित करके मुनि की साधना को खण्डित करने का उपक्रम किया, पर असफल रहे। अंततः मुनि की समता का गुणानुवाद करते हुए अपने स्थान पर लौट गए। उत्कृष्ट साधना से केवल-ज्ञान अर्जित कर सुव्रत मुनि ने मोक्षपद प्राप्त किया।
-आवश्यक नियुक्ति / योग संग्रह / जैनकथा रत्न कोष, भाग 6 (ख) सुव्रत
भगवान पद्मप्रभ के ज्येष्ठ गणधर । सुव्रत (मुनि)
___ एक श्रेष्ठि-पुत्र जिसे बचपन से ही केसरिया मोदक अत्यधिक प्रिय थे। आचार्य शुभंकर के उपदेश से प्रभावित होकर सुव्रत प्रव्रजित हो गया। ज्ञान, ध्यान और तप में शीघ्र ही वह प्रवीण बन गया। किसी समय आचार्य राजगृह नगरी में पधारे। उस दिन नगरी में मोदकोत्सव था। मोदक को गरिष्ठ भोजन मानते हुए
करने की प्रेरणा दी। सुव्रत के अतिरिक्त सभी शिष्यों ने उपवास कर लिया। सुव्रत के मन में छिपा बाल्यावस्था का संस्कार जागृत हो गया। केसरिया मोदक खाने की भावना प्रबल बनी और भिक्षा के लिए चल दिए। पर संयोग कुछ ऐसा बना कि मुनि को कहीं भी केसरिया मोदक का योग न मिला। सुबह से शाम तक मुनि द्वार-द्वार घूमता रहा। उस पर रसगृद्धि इस कद्र सवार हो गई कि उसे यह तक विवेक न रहा कि सूर्यास्त हो गया है। 'केसरिया मोदक-केसरिया मोदक' पुकारते हुए वह मार्गों पर घूम रहा था। जिनभद्र नामक एक श्रमणोपासक की दृष्टि मुनि पर पड़ी। मुनि को देखकर उसने वस्तुस्थिति को समझ लिया। उसने श्रद्धा भक्ति से मुनि को आमंत्रित किया और केसरिया मोदक बहराए। मुनि जब भिक्षा लेकर चलने लगे तो श्रावक जी ने मृदु शब्दों में पूछा, महाराज! समय क्या हुआ है ? मुनि ने आकाश की ओर देखा। सितारों भरे आकाश को देखकर मुनि चौंके। गहन पश्चात्ताप में डूब गए। श्रावक की प्रार्थना पर रात्रि व्यतीत करने के लिए उस की पौषधशाला में ही ठहर गए। मुनि का चिंतन आत्मोन्मुखी बन चुका था। भाव विशुद्ध से विशुद्धतर बनते चले गए और उन्हें केवलज्ञान हो गया। देवों और मनुष्यों ने मुनि की साधना और श्रावक जी की अपूर्व सूझ की मुक्त मन से प्रशंसा की। (क) सुव्रता
रत्नपुर नरेश महाराज भानु की महारानी और पन्द्रहवें तीर्थंकर धर्मनाथ की जननी। (देखिए-धर्मनाथ तीर्थंकर) (ख) सुव्रता (आर्या)
तेतलीपुत्र प्रधान के कथानक में वर्णित साध्वी प्रमुखा। (देखिए-तेतली पुत्र) (क) सुव्रताचार्य
भगवान मुनिसुव्रत के शासन में हुए एक आचार्य। (देखिए-महापद्म चक्रवर्ती) (ख) सुव्रताचार्य
एक जैन आचार्य। सुव्रताचार्य शिष्यों को सदैव साध्वाचार की शिक्षाएं देते थे। एक दिन उन्होंने शिष्यों को शिक्षा देते हुए कहा, रात्रि में परठने के स्थान का दिन में ही सूक्ष्म अवलोकन कर लेना चाहिए। इस पर एक अविनीत शिष्य ने कहा, वहां पर क्या ऊंट बैठा है जो अवलोकन करना चाहिए। अविनीत शिष्य के इस अविनीत व्यवहार पर आचार्य मौन रहे। शासनरक्षक देव ने अविनीत शिष्य को यथोचित सीख देने के लिए एक उपाय किया। वह ऊंट का रूप धारण कर परठने के स्थान पर बैठ गया। रात्रि में वह शिष्य परठने गया ... 688
... जैन चरित्र कोश ...