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चिन्तन करते हुए उनके हृदय में यह भाव उत्पन्न हुए कि वे ग्राम और जनपद धन्य हैं जहां अरिहंत देव भगवान महावीर विचरण कर रहे हैं। कितना सुन्दर हो कि भगवान हमारे नगर में भी पधारें। अब की बार जब भी भगवान यहां पधारेंगे तो मैं उनके श्री चरणों में आर्हती दीक्षा धारण कर आत्म-कल्याण करूंगा।
कालान्तर में भगवान महावीर स्वामी विजयपुर नगर में पधारे। युवराज सुवासव ने अपने आध्यात्मिक संकल्प के अनुरूप भगवान महावीर के चरणों में प्रव्रज्या धारण की। निरतिचार संयम की आराधना द्वारा समस्त कर्मकल्मष को खपाकर वे सिद्ध पद के अधिकारी बने। -विपाक सूत्र, द्वितीय, श्रुत. अ. 4 सुविधिनाथ (तीर्थंकर)
वर्तमान चौबीसी के नवम तीर्थंकर। आप काकन्दी नरेश महाराज सुग्रीव की पटरानी रामा देवी के आत्मज थे। आपके गर्भ में आते ही माता ने समस्त विधियों में विशेष कुशलता हस्तगत कर ली, फलतः आपको सुविधिनाथ नाम दिया गया। योग्यवय में आपने शासनसूत्र संभाला और प्रलम्ब समय तक राज्य किया। आपके सुशासन में प्रजा पूर्ण सन्तुष्ट और सुखी थी। अन्तिम वय में आपने जिनदीक्षा धारण की
और केवलज्ञान प्राप्त कर धर्म तीर्थ की संरचना की। जगत के लिए कल्याण का द्वार उद्घाटित करके कुछ कम एक लाख पूर्व का चारित्र पर्याय पालकर कार्तिक कृष्णा नवमी के दिन सम्मेद शिखर से मोक्ष पधारे।
'वराह' प्रमुख आपके 88 गणधर थे।
युगबाहु के भव में आपने तीर्थंकर गोत्र का अर्जन किया था। तदनन्तर वैजयन्त देवलोक का एक भव करके आप तीर्थंकर बने और निर्वाण को उपलब्ध हुए।
भगवान के निर्वाण के कुछ काल बाद तक तो धर्मशासन चलता रहा किन्तु बाद में साधु तीर्थ का विच्छेद हो गया। श्रावकों ने तीर्थ संचालन का दायित्व अपने हाथों में लिया। पर वे जैन धर्म की गरिमा को अक्षुण्ण नहीं रख सके। धर्मोपदेश को उन्होंने अर्थार्जन का साधन बना लिया। धर्मोपदेश के बदले वे भूमि, लोह, तिल, स्वर्ण, गौ और कन्या आदि तक का दान लेने लगे थे। तभी से उक्त प्रकार के दानों का प्रचलन प्रारंभ हुआ।
-त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र (क) सुव्रत
सुदर्शनपुर निवासी गृहपति सुभाग और उसकी पत्नी सुजसा का आत्मज। जिनत्व का अमृत जन्मघुट्टी के रूप में सुव्रत को माता-पिता से प्राप्त हुआ था। सुव्रत युवा हुआ। उसके सद्संस्कार भी वृद्धिमान बने। एक बार एक मुनि नगर में पधारे। सुव्रत मुनि के दर्शनों के लिए गया। मुनि का उपदेश सुनकर सुव्रत ने
आत्मकल्याण का निश्चय सुस्थिर बना लिया। उसने दीक्षित होने के लिए माता-पिता से आज्ञा मांगी। उसके माता-पिता भी भविकजन थे। पुत्र के उत्कृष्ट भावों को देखते हुए उसे दीक्षित होने की अनुमति माता-पिता ने दे दी।
सुव्रत प्रव्रजित हो गया। उसने ज्ञानाभ्यास किया और गीतार्थ बन गया। गुरु की अनुमति पर उसने एकलविहार प्रतिमा अंगीकार की और अकेला ही जनपदों में विचरण करने लगा। सुव्रत मुनि ने समता भाव की विशेष आराधना की। दिग्-दिगन्तों में मुनि की समता साधना यशस्वी बन गई। देवलोक तक में मुनि की समता साधना की सुगन्ध व्याप्त हो गई। एक बार देवराज इन्द्र ने मुनि की समता की अनुशंसा करते हुए देवसभा में कहा-सुर, नर, किन्नर और देव भी सुव्रत मुनि को समता से विचलित नहीं बना सकते हैं। ____दो देव मुनि की परीक्षा लेने के लिए पृथ्वी पर आए। उन्होंने अनेक अनुकूल और प्रतिकूल परीषह और ...जैन चरित्र कोश ...
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