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पूरी पृष्ठभूमि तैयार होने पर एक दिन पण्डिता ने पौषधशाला में ध्यानस्थ सुदर्शन सेठ को अपने सिर पर उठाया और ठीक प्रतिमा की भांति ही उस पर वस्त्र डाल कर महलों में ले गई। आगे का कार्य अभया को पूर्ण करना था। उसे अपने रूप पर घमण्ड था। वह सोचती थी कि वह दुनिया के किसी भी पुरुष को चलित कर सकती है। उसने सुदर्शन को अपने रूपजाल में फंसाने का यत्न किया। सुदर्शन ने उसे 'मां' का सम्बोधन दिया। उसने कहा कि राजा की पत्नी प्रजा के लिए माता होती है। एक माता का अपने पुत्र के प्रति ऐसा विचार निन्दनीय है। पर सुदर्शन की इन बातों का अभया पर कोई प्रभाव न पड़ा। वह उसे रिझाने-मनाने में लगी रही पर उसे सफलता नहीं मिली। उसे जब लगा कि सुदर्शन उसकी बात स्वीकार नहीं करेगा तो उसने त्रियाचरित्र का अन्तिम पासा फैंका। उसने कहा कि यदि वह उसकी बात नहीं मानेगा तो वह उस पर दोषारोपण करके उसे शूली पर चढ़वा देगी, और यदि मानेगा तो उसे न केवल अपने हृदय के सिंहासन पर बैठा लेगी अपितु वृद्ध दधिवाहन को मार्ग से हटाकर उसे अंगदेश के सिंहासन पर भी बैठा देगी।
सुदर्शन ने अभया के इस कुत्सित प्रस्ताव की कड़े शब्दों में भर्त्सना की और स्पष्ट कर दिया कि उसे अपने चारित्र के मूल्य पर स्वर्ग का सिंहासन भी स्वीकार्य नहीं है। अपने चारित्र की रक्षा के साथ वह जन्म-जन्मान्तर में शूली पर चढ़ना पसन्द करेगा। सुदर्शन के इस उत्तर से अभया का क्रोध आकाश छूने लगा। उसने त्रियाचरित्र रचते हुए अपने वस्त्र फाड़ डाले, बाल बिखेर लिए और अपने ही नाखुनों से अपने चेहरे को नोंचते हुए 'बचाओ-बचाओ' के उच्च स्वर से चिल्लाने लगी।
सुदर्शन जानते थे कि ऐसी परिस्थितियों में उनके स्पष्टीकरण को कोई नहीं सुनेगा और सुनेगा तो विश्वास नहीं करेगा। सो उन्होंने तीर्थंकर-सिद्धों को वन्दन करते हुए सागारी अनशन धारण किया तथा अखण्ड मौन समाधि में लीन हो गए। उधर सैनिक दौड़कर महलों में पहुंचे। दधिवाहन भी पहुंचा। अभया ने कल्पित कहानी कहकर सुदर्शन को शूली पर चढ़ाने की राजा से प्रार्थना की। राजा को भी लगा कि सुदर्शन का दुःसाहस अक्षम्य है। उसने जल्लादों को बुलाकर सुदर्शन को शूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया।
सुदर्शन के लिए शूली के दण्ड की बात पूरे जनपद में फैल गई। सुदर्शन को देखने के लिए पूरा नगर उमड़ पड़ा। कोई इसे अन्याय तथा कोई उचित दण्ड कह रहा था। जितने मुंह उतनी बात । अन्ततः सुदर्शन को शूली पर जैसे ही बैठाया गया वैसे ही एक चमत्कार घटित हुआ। शूली स्वर्ण सिंहासन में बदल गई। सत्य और शील की विजय हुई। दधिवाहन दौड़कर आया और सुदर्शन से अपने अविचारपूर्ण दण्ड के लिए क्षमा मांगने लगा।
अभया को पूरी बात ज्ञात हुई तो वह सम्भावित मृत्यु-दण्ड के भय से कांप उठी। उसने महल से कूदकर आत्महत्या कर ली। मरकर वह व्यन्तरी बनी। पण्डिता दासी भी चम्पानगरी से भागकर पाटलिपुत्र पहुंची और वहां देवदत्ता वेश्या की परिचर्या करने लगी।
सुदर्शन सेठ ने अनेक वर्षों तक श्रेष्ठ गृहस्थ जीवन जीने के पश्चात् दीक्षा धारण की। एक बार वे पाटलिपुत्र गए तो वहां पण्डिता ने उन्हें अनेक उपसर्ग दिए। व्यन्तरी बनी अभया ने भी सुदर्शन मुनि के लिए विविध उपसर्ग निर्मित किए। पर सुदर्शन मुनि ने इन समस्त उपसर्गों को समता से सहकर कर्म बीजों को निर्बीज बना दिया और कैवल्य प्राप्त कर मोक्ष में गए।
-आवश्यक कथा (क) सुदर्शना
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