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पास आधुनिक शस्त्रास्त्र और भारी सैन्य बल था । हजारों स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने प्राणों की आहुति दी । आखिर ग्वालियर पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। इस युद्ध में महारानी लक्ष्मीबाई भी वीरगति को प्राप्त हुई
स्वतंत्रता सेनानियों को भारी सहायता पहुंचाने के आरोप में अंग्रेजों ने अमरचंद जी बांठिया को गिरफ्तार कर लिया। संक्षिप्त मुकदमा चलाकर उन्हें 22 जून 1858 को ग्वालियर के सर्राफा बाजार में नीम के पेड़ से फांसी के फंदे पर लटका दिया। फांसी के फंदे को गले में धारण करते हुए अमर शहीद बांठिया इस बात से संतुष्ट और सुप्रसन्न थे कि वे एक महान उद्देश्य के लिए अपने जीवन का बलिदान कर रहे हैं।
अमरदत्त
रत्नपुर नगर के श्रेष्ठ जयघोष का पुत्र । जयघोष वंशानुगत बौद्धमत का अनुयायी था । परिणामतः अमरदत्त को भी वही संस्कार प्राप्त हुए। एक बौद्धमतानुयायी परिवार में ही अमरदत्त का विवाह हुआ । एक बार अमरदत्त अपने मित्रों के साथ वन-विहार के लिए गया। उसने एक जैन श्रमण के चरणों में बैठे हुए एक दरिद्र व्यक्ति को देखा। वह भी मुनि के पास जाकर बैठ गया । दरिद्र व्यक्ति ने अपनी कष्टकथा को सुनाई, जिसे सुनकर मुनि ने स्पष्ट किया कि सभी जीवों को अपने-अपने कृतकर्मों को भोगना पड़ता है। मुनि ने उस व्यक्ति को उसका पूर्वभव सुनाया, जिसे सुनकर वह सम्बोधि को प्राप्त हो गया। इससे अमरत् के हृदय में भी सम्यक्त्व उत्पन्न हुआ। उसने भी मुनि से श्रावक धर्म अंगीकार कर लिया ।
घर लौटने पर अमरदत्त के मित्रों ने उसके धर्मान्तरण की बात उसके पिता को बताई। इससे पिता बहुत नाराज हुआ और अमरदत्त को जिनधर्म त्यागने के लिए विवश करने लगा । परन्तु अमरदत्त इसके लिए तैयार नहीं हुआ। इस पर अमरदत्त का श्वसुर भी नाराज हुआ और बोला, मेरी पुत्री से सम्बन्ध रखना चाहते हो तो जिनधर्म को छोड़ दो। अमरदत्त की माता ने पुत्र को मध्यम मार्ग सुझाया, पुत्र! तुम जिनधर्म का त्याग भले ही मत करो, परन्तु अपनी कुलदेवी 'अमरा' की आराधना से मुंह मत फेरो। अमर उसके लिए भी राजी न हुआ। इस पर अमरा देवी भी नाराज हो गई। अमर के स्वप्न में प्रकट होकर उसने कहा, अमर ! तू जिनधर्म को छोड़ दे, अन्यथा तुझे भयंकर कष्टों का सामना करना पड़ेगा।
इस पर भी अमरदत्त की श्रद्धा जिनधर्म से न्यून न हुई । बल्कि पूर्वापेक्षया और अधिक सुदृढ़ बन गई। तब देवी ने उसे अनेक प्रकार के कष्ट दिए। पर अमर ने उन कष्टों को समभावपूर्वक सहन किया । आखिर अमरादेवी अमरदत्त की दृढ़धर्मिता के समक्ष नतमस्तक हो गई । वह स्वयं भी जिनोपासिका बन गई। उसने अमरदत्त को उच्च सिंहासन पर बैठाकर उस पर पुष्प वर्षा की और उसकी तथा उसके ग्रहीत धर्म की प्रशंसा की ।
इससे परिवार-परिजनों के हृदय भी बदल गए। अपनी कुलदेवी को भी जिनोपासिका देखकर सभी ने जिनधर्म स्वीकार कर लिया। सभी ने अमरदत्त से अपनी मूढ़ता के लिए क्षमा मांगी। अमरदत्त ने श्रावकधर्म का पालन किया। अंतिम वय में उसने दीक्षा धारण की और वह देवलोक में गया। वहां से च्यव कर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर वह मुक्त हो जाएगा।
- धर्मरत्न प्रकरण, गाथा 67, भाग-2
(क) अमरसिंह जी म. (आचार्य)
विक्रम की अठारहवीं सदी के स्थानकवासी परम्परा के एक तेजस्वी आचार्य। आपका जन्म दिल्ली में → जैन चरित्र कोश •••
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