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घोषणा को ब्राह्मण ऋषभदत्त की भार्या भद्रा ने भी सुना। भद्रा ने इसे यथेच्छ स्वर्ण-प्राप्ति का एक सुअवसर माना। राजपुरुषों को बुलाकर उनको अपना पुत्र अमर कुमार प्रदान कर दिया और पुत्र के वजन के तुल्य स्वर्ण प्राप्त कर लिया। माता के इस अकल्पित आचरण से अमर सहम गया। उसने पिता और भाइयों से आत्मरक्षा की प्रार्थना की। परन्तु सभी ने उससे मुंह फेर लिया। बलिवेदी पर अमर को लाया गया। अमर ने पंचों और राजा से प्राणरक्षा की दुहाई दी। पर किसी ने उसकी रक्षा नहीं की। उस क्षण अमर को मुनि के वचन स्मरण हो आए। उसने आंखें मूंद लीं और महामंत्र नवकार का जाप करने लगा।
__ मन्त्रोच्चार के मध्य याज्ञिकों ने अमर को उठाया और प्रज्ज्वलित अग्निकुण्ड में फेंक दिया। उसी क्षण महाचमत्कार घटित हुआ। अग्निकुण्ड जलकुण्ड बन गया। देवराज इन्द्र ने हाथों पर अमर को ग्रहण कर लिया। रक्तवमन करता हुआ श्रेणिक भूमि पर लुढ़क गया। इस महान चमत्कार से भयभीत होकर याज्ञिक सिर पर पांव धरकर भाग खड़े हुए। श्रेणिक बालक अमर के पैरों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। उसने अपना राजमुकुट उतारकर अमर के सिर पर रख दिया और कहा, आज से तुम मगधेश हो, मैं तुम्हारा अनुचर हूं।
__ अमर ने राजमुकुट लौटा दिया। उसी क्षण मुनिवेश धारण कर वह जंगल में चला गया और तप करने लगा। कहते हैं उसी रात उसकी माता भद्रा ने इस विचार से कि कहीं राजा स्वर्ण वापिस न ले ले, मुनि अमर का वध कर दिया। शान्त-प्रशान्त भावों से नमस्कार सूत्र का जप करते हुए मुनिवर अमर ने देहोत्सर्ग कर बारहवें स्वर्ग को प्राप्त किया। एक भव मनुष्य का लेकर वह सिद्धत्व को प्राप्त करेगा।
पुत्र का वध करके लौट रही भद्रा को एक सिंहनी ने अपना आहार बना लिया। मरकर वह छठी नरक में गई। अमरचंद बांठिया
अमरचंद बांठिया का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानियों में स्वर्णाक्षरों में अंकित है।
अमरचंद बांठिया का जन्म जैन परिवार में हुआ। परिणामतः उनका जीवन जैन संस्कारों से सुसंस्कारित था। वे सन् 1835 में बीकानेर से ग्वालियर में आकर बस गए थे। उनके पिता का नाम अबीरचंद था और वे सात भाइयों में सबसे छोटे थे।
अपनी सत्यनिष्ठा, प्रामाणिकता और कार्यकुशलता के बल पर अमरचंद बांठिया ग्वालियर राज्य के प्रधान राजकोष गंगाजली के कोषागार के प्रधान कोषाध्यक्ष नियुक्त हुए। सिंधिया नरेशों के इस राजकोष में अकूत संपत्ति जमा थी। ग्वालियर राजवंश में यह परम्परा थी कि कोष में संचित धनराशि को न तो कोई देख सकता था और न ही उससे धन निकाल सकता था। यही कारण था कि कोष में विशाल संपत्ति संचित हो गई थी। ____1857 में भारतवर्ष में स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था। अंग्रेजों के विरुद्ध भारतवासी कड़ा संघर्ष कर रहे थे। मध्यप्रदेश में महारानी झांसी, तात्या टोपे जैसे वीर सेनानी भारत की स्वतंत्रता के लिए निर्णायक युद्ध लड़ रहे थे। निरंतर संघर्ष से स्वतंत्रता सेनानियों को शस्त्रों और अन्नाभाव का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में अमरचंद बांठिया ने राजकोष में संचित धनराशि स्वतंत्रता सेनानियों के लिए समर्पित कर दी। इतना ही नहीं उन्होंने अपनी निजी संपत्ति को भी सैनिकों के वेतन के रूप में वितरित कर दिया।
___ बांठिया जी के इस उदार और साहसिक सहयोग ने स्वतंत्रता सेनानियों के मंद पड़ते शौर्य को जगा लिया। अंग्रेजों के विरुद्ध जोरदार युद्ध लड़ा गया, जिसमें अंग्रेज सेना को भारी क्षति उठानी पड़ी। अंग्रेजों के - जैन चरित्र कोश ...
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