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बिछुड़कर प्रियमेक तीर्थ पर पहुंचकर मौन जप में लीन हो गई। भाग्य के आरोह-अवरोह से खेलता सिंहल कुमार आखिर कुसुमपुर नगर में पहुंचा। वहां कुसुमपुर नरेश की कन्या से उसने पाणिग्रहण किया और प्रियमेलक तीर्थ पर साधनारत अपनी तीनों पत्नियों से मुलाकात की । आखिर अपनी चारों पत्नियों के साथ सिहंलकुमार सिंहलपुर नगर में पहुंचा। पिता के प्रव्रजित होने पर वह राजा बना और न्यायनीति पूर्वक - राज्य संचालन करते हुए जीवन के उत्तरार्ध भाग में प्रव्रजित हो उसने सद्गति प्राप्त की ।
- प्रियमेलक तीर्थ कथा
(क) सिंहसेन
चम्पानगरी का राजा । (देखिए - क्षुल्लक मुनि)
(ख) सिंहसेन
प्रतिष्ठ नगर का राजा । (देखिए - देवदत्ता)
विपाक सूत्र, प्र. श्रु., अ. 9
सिद्धर्षि (आचार्य)
वी. नि. की 15वीं शताब्दी के एक विद्वान जैन आचार्य | आचार्य सिद्धर्षि के गुरु का नाम गर्षि था जो निवृत्ति गच्छ के आचार्य थे ।
सिद्ध
गुजरात के श्रीमालपुर नगर में हुआ था । वे श्रीमाल गोत्रीय थे और राजमंत्री सुप्रभदेव के पौत्र थे । महाकवि माघ को उनका चचेरा भाई भी कुछ विद्वानों द्वारा माना जाता है।
आचार्य सिद्धर्षि का गृह समृद्ध था । उनका विवाह भी हुआ। वे विनम्र और जिज्ञासु थे। जहां कई विरल गुण उनके जीवन में थे वहीं एक अवगुण भी था जिसने उनके समस्त गुणों को आवृत्त कर लिया था । वह अवगुण था- द्यूत का व्यसन । सिद्धर्षि देर रात्रि बीतने तक द्यूत खेलते और पश्चिम रात्रि में घर आते। उनकी पत्नी के म्लान मुख ने उनकी मां का ध्यान आकृष्ट किया। मां सजग हो गई। एक बार देर रात्रि में सिद्धर्षि लौटे तो मां ने द्वार खोलने से इन्कार कर दिया। उसने कहा, मर्यादाओं को अतिक्रमण करने वाले के लिए मेरे घर के द्वार बन्द हैं। जहां तुम्हें द्वार खुले मिलें, वहां चले जाओ। सिद्धर्षि लौट गए और उपाश्रय के द्वार खुले देखकर वहां चले गए। प्रभात के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय - ध्यानरत मुनिजनों को देखकर सिद्धर्षि अपने जीवन की तुलना उनके जीवन से की। उसे आत्मग्लानि हो गई । आत्मग्लानि से वैराग्य उभरा और वे वहां विराजित आचार्य गर्गर्षि के शिष्य बन गए ।
जैन दर्शन का सांगोपांग अध्ययन कर सिद्धर्षि जिनशासन के समर्थ विद्वानों में गिने जाने लगे । कालान्तर में उनके जीवन में एक ऐसा प्रसंग भी आया जब वे बौद्ध धर्म से प्रभावित होकर जैनधर्म का परित्याग कर बौद्ध भिक्षु बन गए । उस अवधि में आचार्य गर्गर्षि ने एक भेंट में उनको एक ग्रन्थ पढ़ने को दिया, जिसके अध्ययन से सिद्धर्षि पुनः जैन धर्म में लौट आए। सिद्धर्षि आचार्य पद से अभिमण्डित हुए।
कुछ विद्वान आचार्य सिद्धर्षि को आचार्य हरिभद्र का शिष्य भी मानते हैं। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि सिद्धर्षि जब बौद्धों में दीक्षित हो गए तो वहां उनके लिए आचार्य पद प्रस्तावित किया गया । परन्तु अपने गुरु हरिभद्र से वे वचन बद्ध थे कि वे बौद्ध धर्म में प्रवेश से पूर्व एक बार उनसे मिलने अवश्य आएंगे। सिद्धर्षि आचार्य हरिभद्र से मिलने आए। दोनों में शास्त्रार्थ हुआ जिसमें सिद्धर्षि पराजित हुए और पुनः जैन धर्म में दीक्षित हो गए। ऐसा भी उल्लेख है कि वे इक्कीस बार बौद्ध धर्म में तथा इतनी ही बार जैन धर्म में दीक्षित हुए। परन्तु एक विद्वान मुनिवर का ऐसा अस्थिर चित्त होना अविश्वसनीय प्रतीत होता है । ••• जैन चरित्र कोश
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