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(क) सिंहस्थ
चम्पापुर का एक राजा। (देखिए-श्रीपाल) (ख) सिंहस्थ
प्राचीनकालीन राजगृह नगरी का एक राजा। (देखिए-आषाढ़) सिंहल कुमार
सिंहलद्वीप के सिंहलपुर नगर के राजा सिंहस्थ और रानी सिंहला का आत्मज, एक परम रूपवान, बुद्धिमान और साहसी राजकुमार। वसन्तोत्सव के अवसर पर जब राज्य का प्रधान हस्ती मत्त होकर भाग छूटा और एक कन्या को उसने अपनी सूण्ड में लपेट लिया तो राजकुमार ने ही अपने चातुर्य और साहस से गजराज का सामना किया और उस कन्या के प्राणों की रक्षा की। वह कन्या थी श्रेष्ठी धन की पुत्री धनश्री। धनश्री अपने प्राण रक्षक राजकुमार के प्रति अनुरागिनी बन गई। उसने अपने माता-पिता से स्पष्ट कह दिया कि वह राजकुमार सिंहलकुमार से विवाह करेगी, अन्यथा प्राण त्याग देगी। विवश श्रेष्ठी ने अपनी पुत्री की बात राजा से कही, राजा ने रानी से और रानी ने सिंहलकुमार से। सिंहलकुमार के मौन को स्वीकृति माना गया और उसका विवाह धनश्री से सम्पन्न हो गया।
धनश्री रूप-गुण सम्पन्न और पतिव्रता बाला थी। राजकुमार सुखपूर्वक अपनी पत्नी के साथ समय व्यतीत करने लगा। राजकुमार का रूप-सौन्दर्य कामदेव को लज्जित करने वाला था। वह नगर-भ्रमण को निकलता तो विवाहिता और अविवाहिता स्त्रियां अपने कुलधर्म को भूलकर उसके रूप को देखने लगती थीं। मर्यादाओं के टूटने की सम्भावना से भयभीत वृद्ध नागरिकों ने राजा से तत्सम्बंधी प्रार्थना की। राजा ने पुत्र के लिए आदेश जारी कर दिया कि वह नगर भ्रमण न करे और अपने महल में रहकर ही आमोद-प्रमोद करे। राजकुमार ने इसे अपने लिए परतन्त्रता माना और भाग्य-परीक्षण के लिए देशाटन का संकल्प कर लिया। उसने धनश्री को अपने संकल्प से परिचित कराया। धनश्री आग्रह करके साथ चलने को तैयार हो गई। एक रात्रि में किसी को सूचित किए बिना सिंहलकुमार धनश्री के साथ समुद्रतट पर आ गया और प्रस्थान को तैयार एक जहाज पर वह अपनी पत्नी के साथ सवार हो गया। कई दिनों तक यात्रा सकुशल चलती रही। एक दिन दुर्दैववश जहाज एक चट्टान से टकराकर टुकड़े-टुकड़े हो गया। धनश्री और सिंहलकुमार को अलग-अलग काष्ठ खण्ड हाथ लग गए। धनश्री कुसुमपुर नगर के तट पर लगी। वहां एक यक्षायतन था। एक वृद्धा से उसे ज्ञात हुआ कि यह यक्षायतन 'प्रिय मेलक तीर्थ' नाम से जाना जाता है। जो भी विरहिन यहां बैठकर मौन जप करती है उसे शीघ्र ही उसके प्रियतम से मिलन हो जाता है। धनश्री यक्षायतन में बैठकर मौन जप में लीन हो गई।
उधर सिंहलकुमार रत्नपुर नगर के तट पर आ लगा। एक गरुड़युगल की वार्ता से उसे सर्प विष की औषधि प्राप्त हुई। उसने रत्नपुर की राजकुमारी रत्नवती को विषमुक्त करके उससे पाणिग्रहण किया। जब वह अपने नगर लौटने लगा तो रत्नपुर नरेश ने एक पोत धन-संपदा से भर कर उसे दिया और अपने विश्वस्त मंत्री रुद्र को उसके साथ भेजा। रुद्र रत्नवती के रूप पर मोहित था, सो उसने दांव साधकर सिंहलकुमार को समुद्र में धकेल दिया। रत्नवती ने बुद्धिबल से रुद्र से अपने शील का रक्षण किया और दैवयोग से वह भी प्रियमेलक यक्षायतन में पहुंचकर प्रिय मिलन की आशा से मौन जाप करने लगी। भाग्य बल से सिंहलकुमार तट पर आ लगा। जंगल में एक राजर्षि की कन्या से उसने पाणिग्रहण किया। ऋषि सुता भी सिंहलकुमार ... 642
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