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प्रचार और प्रसार में उसने महती योगदान दिया। जिनशासन के प्रति उसके हृदय में अखण्ड आस्था थी। संक्षेप में उसका जीवन परिचय निम्नोक्त है
कुशाग्रपुर नरेश प्रसेनजित के सौ पुत्र थे जिनमें से ज्येष्ठ पुत्र थे श्रेणिक। अन्तिम आयु में प्रसेनजित ने एक पल्लीपति की पुत्री से विवाह किया। परन्तु यह विवाह इस शर्त पर हुआ था कि उस कन्या से उत्पन्न संतान ही राज्य की अधिकारी होगी। मन के गुलाम राजा ने पल्लीपति की इस शर्त को मान लिया था पर उसे इस बात का खेद अवश्य था कि उसने अपने सर्वविध योग्य और पितृभक्त पुत्र के अधिकार का हनन किया है। अधिकारी होते हुए भी अनाधिकारी बना दिए गए अपने पुत्र श्रेणिक को प्रसेनजित देखता तो उसे बड़ा कष्ट होता। इस दृष्टि से कि 'श्रेणिक अन्यत्र जाकर अपने भाग्य को चमकाए' प्रसेनजित ने कृत्रिम रोष प्रदर्शित करते हुए उसे अपने राज्य से निकाल दिया। ___श्रेणिक चले। एक बौद्ध आश्रम में रुके। आश्रमाधिपति ने शकुनविचार से तथा श्रेणिक की मस्तकीय रेखाओं को पढ़कर जान लिया कि वह अल्पकालावधि में ही अंग और मगध का राजा बनने वाला है। उसने श्रेणिक को यह बात बताई। श्रेणिक ने कहा, अगर ऐसा हुआ तो वह उनका सम्मान करेगा। यहां-वहां भटकते श्रेणिक वेनातट नगर पहुंचे। वहां एक वणिक के अतिथि बने। वणिक ने श्रेणिक को सर्वविध योग्य पाकर उनसे अपनी पुत्री नन्दा का विवाह कर दिया। ___उधर प्रसेनजित ने पल्लीपति की कन्या से प्राप्त पुत्र को राजगद्दी पर बैठा दिया। पर वह अयोग्य उत्तराधिकारी सिद्ध हुआ। प्रसेनजित के आदेश पर सचिवों ने श्रेणिक को खोज निकाला और उन्हें ससम्मान आमंत्रित करके मगध देश का राजा बना दिया। श्रेणिक एक सुयोग्य और प्रजावत्सल राजा सिद्ध हुए। उन्होंने अपनी वीरता और बुद्धिमत्ता से अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। बौद्ध भिक्षु ने उन्हें शीघ्र ही राजा बनने की बात कही थी फलतः श्रेणिक बौद्ध भिक्षुओं का विशेष आदर-मान करने लगे और उन्होंने बौद्ध धर्म अंगीकार भी कर लिया।
कालान्तर में श्रेणिक राजा ने महाराज-चेटक की पुत्री चेलना से विवाह किया। चेलना के मन-प्राण में जैन धर्म बसा हुआ था। चेलना श्रेणिक को जैन धर्म अंगीकार करने के लिए तथा श्रेणिक चेलना को बौद्ध धर्म अंगीकार करने के लिए प्रेरित करते रहे। दोनों अपने-अपने प्रयत्नों में असफल रहे। लेकिन एक घटना प्रसंग ने श्रेणिक को ऐसा सम्मोहित किया कि वे जैन धर्मावलम्बी बन गए। वह घटना इस प्रकार थी थी___एक दिन श्रेणिक वन भ्रमण को गए। उन्होंने वहां एक जैन श्रमण-अनाथी मुनि को ध्यानस्थ देखा। मुनि के रूप और यौवन को देखकर राजा गद्गद बन गया। उसने श्रमण से कहा, कि वह इस अद्भुत रूप
और यौवन को जंगलों में अकेला भटक कर क्यों व्यर्थ बना रहा है। वह उसके संरक्षण में रहे और मनचाहे भोग-भोगे। अनाथी मुनि ने अपनी प्रव्रज्या का कारण अपनी अनाथता बताया। इस पर राजा ने कहा कि वह उसका नाथ बनेगा। राजा की बात सुनकर मुनि ने ऐसी बात कही जिसे सुनकर राजा हैरान रह गया। मुनि ने कहा कि वह स्वयं अनाथ है और जो स्वयं अनाथ है वह किसी का नाथ कैसे बन सकता है। राजा ने अपनी दौलत. समद्धि और सत्ता की बात कही तो मनि ने पूछा कि क्या ये सब कुछ उसे मृत्यु से त्राण दे सकते हैं। क्या मृत्यु के क्षण में धन, सेना और समृद्धि के बल पर वह उससे बच सकता है ?
राजा को लगा कि मुनि का कथन अक्षरशः सच है। उसने उसी क्षण जैन धर्म को अंगीकार कर लिया। वह सच्चा श्रमणोपासक और भगवान महावीर का अनन्य उपासक बन गया। भगवान महावीर जब भी राजगृह नगर में अथवा पास-पड़ोस के क्षेत्रों में विचरण करते तो श्रेणिक उनके दर्शन किए बिना अन्न-जल ... जैन चरित्र कोश ...
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