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के मध्य प्रकृष्ट प्रेमभाव और आत्मभाव था। उनके पिता का नाम शूरदत्त, माता का नाम शूरदत्ता और भगिनी का नाम मित्रवती था। शूरदत्त एक समृद्ध गृहस्थ था, पर उसकी मृत्यु के पश्चात् उस घर से समृद्धि विदा हो गई। शूरमित्र और शूरचन्द्र ने प्रदेश में जाकर धनार्जन का निश्चय किया। माता की आज्ञा लेकर दोनों भाई प्रदेश के लिए रवाना हो गए। कई वर्षों तक वे गांव-गांव और नगर-नगर भटकते रहे, परन्तु उन्हें धन अर्जन करने का सुयोग प्राप्त नहीं हुआ। भटकते हुए वे सिंहलद्वीप पहुंचे। उन्हें वहां पर एक अमूल्य मणि प्राप्त हो गई। उस मणि का मूल्य करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं में था। दोनों भाई मणि को लेकर अपने नगर के लिए चल दिए। मणि बड़े भाई शूरमित्र के पास थी। दोनों भाई एक गांव में रुके। छोटा भाई भोजन लेने के लिए गांव में गया। बड़े भाई के मन में लोभ जागा कि यदि वह छोटे भाई की हत्या कर दे तो मणि पर उसी का एकाधिकार हो जाएगा। दुर्विचार उसके मन पर हावी हो गए। पर शीघ्र ही उसका विवेक जागृत हो गया। उसने अपने आप को धिक्कारा कि एक मणि के लिए वह अपने भाई की हत्या का विचार कर बैठा। दूसरे दिन यात्रा आगे बढ़ी। बड़े भाई का मन निरन्तर शुभ और अशुभ भावों का अखाड़ा बना रहा। आखिर उसने वह मणि छोटे भाई को दे दी, उससे उसका मन शान्त हो गया।
मणि पाकर छोटे भाई का मन अशान्त हो गया। वह भी मणि के एकाधिकार के लिए बड़े भाई को मारने के संकल्प-विकल्प में उलझ गया। छोटे भाई ने बड़े भाई को रोका और वह मणि उसके हाथ पर रख दी। बड़े भाई के पछने पर छोटे भाई ने सरलता से अपनी मनःस्थिति उसके समक्ष स्पष्ट कर दी। बड़े भाई ने भी अपनी मनःस्थिति छोटे भाई के समक्ष यथारूप प्रगट कर दी। दोनों भाइयों ने उस मणि को अनर्थकारिणी मानकर उसे मार्ग में बह रही नदी में डाल दिया और अपने घर पहुंच गए।
माता ने पत्रों को कण्ठ से लगाकर उनका स्वागत किया। पत्रों के आगमन की खशी में माता ने विचार किया कि वह पास-पड़ोसियों को भी भोजन कराए। भोजन के लिए वह बाजार से एक मत्स्य खरीद लाई। मत्स्य के उदर से उसे मणि प्राप्त हुई। उसकी प्रसन्नता का पारावार न रहा। उसने परिवार और परिजनों को प्रसन्नता से भोजन कराया। तब उसके मन में लोभ का विषधर प्रवेश कर गया कि यदि अपने दोनों पुत्रों को समाप्त कर दूं तो मणि पर उसी का अधिकार हो जाएगा। उसका मन भी शुभाशुभ भावों का अखाड़ा बन गया। आखिर उसने अशुभ भावों को झटककर निर्णय किया कि मणि के कारण ही उसके हृदय में अपने पुत्रों के प्रति दुर्भाव उत्पन्न हुए हैं। उसने वह मणि अपनी पुत्री मित्रवती को दे दी। मित्रवती की भी वही दशा हुई। वह अपने भाइयों और माता की हत्या की योजना बनाने लगी। आखिर उसे भी सद्बुद्धि जगी और मणि अपने भाइयों और माता के समक्ष रखकर अपने हृदय में उत्पन्न हुए दुर्भावों के लिए उसने पश्चात्ताप और प्रायश्चित्त किया। माता ने भी अपनी बात कही और पुत्रों ने भी अपनी बात कही। आखिर मणि को घोर अनर्थों का मूल-मानकर सागर में फेंक दिया गया।
इस पूरे घटनाक्रम से शूरमित्र और शूरचन्द्र का हृदय विरक्ति से पूर्ण बन गया। धन को अनर्थों का मूल मानकर उन्होंने धर्म की शरण में जाने का संकल्प कर लिया। माता की आज्ञा लेकर वे नन्दन नामक मुनि के चरणों में प्रव्रजित हो गए और दिव्य लोक के अधिकारी बने।-आचार्य हरिषेण, बृहत्कथा कोष-भाग 1 शूरपाल ___एक क्षत्रिय किसान युवक जो अपने पुण्यबल से महाशाल नगर का राजा बना और अंतिम अवस्था में विशुद्ध संयम की आराधना कर मोक्ष में गया। (देखिए-शीलवती) ..592 .m
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