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शान्तनु राजा
हस्तिनापुर का कुरुवंशी राजा। वह न्याय-नीति निष्णात, बलवान और अनेक कलाओं में प्रवीण था। आखेट-प्रियता उसका व्यसन था। आखेट-त्याग की शर्त पर ही गंगा ने उससे विवाह किया था। पर कालान्तर में जब राजा ने अपनी शर्त खण्डित कर दी तो गंगा उसका त्याग करके चली गई। बाद में शान्तनु को अपना पुत्र गांगेय कुमार प्राप्त हो गया। शान्तनु गांगेय के वीरता-विनयादि गुणों पर मुग्ध था और उसे हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर बैठाना चाहता था, पर एक घटना ने नियति की गति बदल दी। शान्तनु सत्यवती नामक धीवर कन्या-वस्तुतः जो एक राजसुता ही थी-के रूप-पाश में आबद्ध हो गया। राजा ने धीवर से उसकी कन्या की याचना की जिस पर धीवर ने यह शर्त रख दी कि यदि वे सत्यवती की संतान को ही कुरु सिंहासन पर उत्तराधिकार का वचन दें तो उनके साथ सत्यवती का विवाह किया जा सकता है। ____धीवर की कठिन शर्त पर शान्तनु मौन हो गया, क्योंकि वह गांगेयकुमार का अधिकार किसी अन्य को नहीं दे सकता था। पर सत्यवती के आकर्षण को वह अपने हृदय से दूर नहीं कर सका और उसी कारण भीतर ही भीतर क्षीण होने लगा। पिता की चिन्ता के कारण को गांगेय ने खोजा और वह स्वयं धीवर के पास अपने पिता के लिए सत्यवती की याचना करने जा पहुंचा। धीवर द्वारा शर्त दोहराए जाने पर गांगेय ने सिंहासन पर न बैठने की प्रतिज्ञा कर ली। धीवर द्वारा शंका व्यक्त की गई कि वह न सही, पर उसकी संतान तो सिंहासन के लिए संघर्ष कर ही सकती है। इस पर गांगेय ने आजीवन ब्रह्मचर्य पालन की प्रतिज्ञा कर धीवर की शंका को निर्मूल कर दिया। इसी दृढ़ प्रतिज्ञा के कारण गांगेय जगत में 'भीष्म' नाम से विख्यात हुए।
शान्तनु का विवाह सत्यवती से हुआ जिससे उसे दो पुत्रों की प्राप्ति हुई। अतिशय भोगों में डूबे रहने के कारण शान्तनु का निधन हो गया।
-जैन महाभारत शान्तिनाथ (तीर्थंकर)
प्रभु शांतिनाथ चौबीस-तीर्थंकर श्रृंखला के सोलहवें तीर्थंकर और द्वादश-चक्रवर्ती श्रृंखला के पंचम चक्रवर्ती थे। हस्तिनापुर नरेश महाराज विश्वसेन और उनकी रानी अचिरादेवी प्रभु के जनक और जननी थे। ज्येष्ठ कृष्णा त्रयोदशी के दिन शुभ मुहूर्त में प्रभु का जन्म हुआ। प्रभु के गर्भ में आने से पूर्व राज्य में मरी नामक रोग फैला हुआ था। अनेक प्रयासों से भी यह रोग शान्त नहीं हो रहा था। प्रभु के गर्भ में आते ही राज्य से यह रोग समूलतः समाप्त हो गया और सब ओर शान्ति ही शान्ति व्याप्त हो गई। इसी से प्रभु को "शान्तिनाथ" नाम दिया गया।
यौवनावस्था में शान्तिनाथ का अनेक राजकुमारियों से पाणिग्रहण हुआ। पच्चीस हजार वर्ष की अवस्था में वे राजपद पर प्रतिष्ठित हुए। शस्त्रशाला में चक्ररत्न प्रगट हुआ जो इस बात का संकेत था कि शान्तिनाथ दिग्विजय के लिए प्रस्थान करें। शान्तिनाथ दिग्विजय के लिए निकले। षटखण्ड के समस्त शासक उन के अधीन स्वेच्छया से ही हो गए। इस प्रकार प्रभु चक्रवर्ती पद पर अभिषिक्त हुए। पचास हजार वर्षों तक राज करने के पश्चात् वर्षीदान देकर एक हजार राजाओं के साथ प्रभु प्रव्रजित हुए और एक मास की साधना के अन्दर ही केवली बन तीर्थंकर बन गए। तीर्थ की स्थापना से लाखों-लाख भव्यजीव आत्मकल्याण के पथ के पथिक बने। एक लाख वर्ष का कुल आयुष्य भोग कर प्रभु निर्वाण को उपलब्ध हुए।
-त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र ... जैन चरित्र कोश ...
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