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जय धवला आचार्य गुणधर कृत 'कषाय प्राभृत' नामक ग्रन्थ पर विशाल टीका है जिसका परिमाण 60000 श्लोक है। इसमें 20000 श्लोकों के रचयिता वीरसेन हैं और शेष के रचयिता आचार्य जिनसेन हैं।
राष्ट्रकूट नरेश अमोघ वर्ष पर आचार्य वीरसेन का विशेष प्रभाव था। राजा अमोघवर्ष का उपनाम धवल था। संभव है उसी उपनाम पर आचार्य श्री ने अपने टीका ग्रन्थों का नामकरण धवला और जयधवला किया हो।
एलाचार्य आचार्य वीरसेन के विद्यागुरु थे और आर्यनन्दी उनके दीक्षागुरु थे। वीरसेन स्वामी (विहरमान तीर्थंकर)
सत्रहवें विहरमान तीर्थंकर । वर्तमान में प्रभु अर्धपुष्करद्वीप के पूर्व महाविदेह क्षेत्र की पुष्कलावती विजय में विराजमान हैं। उक्त विजय के अन्तर्गत पुण्डरीकिणी नगरी प्रभु की जन्मस्थली है। इस नगरी के महाराज भूमिपाल की रानी भानुमती की रत्नकुक्षी से प्रभु का जन्म हुआ था। प्रभु वृषभ के लक्षण से सुशोभित हैं। प्रभु जब युवा हुए तो राजसेना नामक राजकन्या के साथ विवाहित हुए। तिरासी लाख पूर्व की अवस्था तक प्रभु ने राज्य किया, उसके बाद वर्षीदान देकर दीक्षित हुए। केवलज्ञान प्राप्त कर धर्मतीर्थ की स्थापना की। असंख्य भव्य जीव प्रभु के शासन में आत्मकल्याण का आत्मपथ प्रशस्त कर रहे हैं। चौरासी लाख पूर्व का आयुष्य पूर्ण कर प्रभु मोक्ष में जाएंगे। (क) वीरसेना
एक राजकुमारी जिसका विवाह कुमार स्वयंप्रभ (विहरमान तीर्थंकर) से हुआ था। (दखिए-स्वयंप्रभ स्वामी) (ख) वीरसेना
सप्तम विहरमान तीर्थंकर प्रभु ऋषभानन स्वामी की जननी। (दखिए-ऋषभानन स्वामी) वीरांगद
विजयपुर नगर के राजा सुरांगद का कर्मशूर और बुद्धिशूर पुत्र जो अति उदारहृदयी और शरणागतवत्सल भी था। विजयपुर के मंत्री का पुत्र सुमित्र जो अक्षय बुद्धिनिधान था वीरांगद का अनन्य अनुरागी और मित्र था। किसी समय वीरांगद और सुमित्र नगर के बाहर उद्यान में बैठे प्राकृतिक सुषमा का दर्शन कर रहे थे तो एक भीत और कातर व्यक्ति वीरांगद के चरणों में आ गिरा और शरण मांगी। शरणागतवत्सल राजकुमार ने उसे अपनी शरण में ले लिया। पीछे-पीछे सैनिक भी राजकुमार के पास आ पहुंचे और बोले-युवराज! यह अपराधी है और आपके पिता ने इसे मृत्युदण्ड दिया है, इसे हमें सौंप दीजिए ताकि हम राजाज्ञा का पालन कर सकें। वीरांगद ने कहा कि वह उसका शरणागत है और उसकी रक्षा का उसने वचन दे दिया है, इसलिए वह उसे नहीं लौटाएगा। राजकुमार के हठ की सूचना राजा तक पहुंची जिससे क्षुब्ध होकर राजा ने अपने पुत्र को अपने देश से निर्वासित कर दिया।
सुप्रसन्न चित्त से वीरांगद ने प्रदेश के लिए प्रस्थान कर दिया। उसका मित्र सुमित्र उसका अनुगामी बना। दोनों मित्रों ने देशाटन किया। अपने बुद्धिबल और भाग्ययोग से वीरांगद ने मन्त्रशाल नगर का साम्राज्य हस्तगत किया और अनेक राजकुमारियों से पाणिग्रहण कर सुखपूर्वक जीवन यापन करने लगा। उधर सुमित्र ने भी स्वतंत्र विचरण कर अपार वैभव के साथ-साथ कई कुमारियों से विवाह रचाया। बाद में दोनों मित्रों का पुनर्मिलन हुआ। कालान्तर में दोनों मित्र विशाल सेना के साथ विजयपुर गए। पिता-पुत्र का मिलन हुआ। ... 570 .
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