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महसूस किया और विश्वभूति के प्रति उसका मन विद्वेष और ईर्ष्या से भर गया। घर जाकर उसने अपना अवसाद अपनी मां से कहा। उसकी मां ने अपने पति से शिकायत की और त्रियाहठ के ब्रह्मास्त्र से राजा को विवश कर दिया कि वह किसी विधि से विश्वभूति को पुष्पोद्यान से बाहर निकाले। राजा ने छलनीति द्वारा विश्वभूति को सीमान्त प्रदेश पर उच्छृखल सामंत को सबक सिखाने के लिए भेज दिया। पर सीमान्त प्रदेश पर जाकर विश्वभूति ने पाया कि वहां का सामन्त राजाज्ञाओं का पूर्ण पालन कर रहा है। - विश्वभूति राजधानी लौटा और अंतःपुर को साथ लेकर पुष्पोद्यान में गया तो उसे इसलिए द्वार पर रोक दिया गया कि पुष्पोद्यान में पहले ही विशाखनंदी अपने अंतःपुर के साथ मौजूद था। इस घटना से विश्वभूति राजा और राजकुमार के छल को समझ गया। उसे बहुत क्रोध आया और पास ही खड़े शाल वृक्ष को उखाड़ कर उसने फेंक दिया। पर शीघ्र ही उसने अपने क्रोध पर विवेक का अंकुश लगा लिया और छल को संसार का स्वरूप जानकर वह मुनि बन गया। थोड़े ही समय में उसने उग्र तप से अपनी देह को कृश बना दिया। एक बार जब मुनि विश्वभूति मथुरा की गलियों में भिक्षा के लिए गए तो संयोग से उस समय विशाखनंदी उसी नगरी मे अपनी ससुराल आया हुआ था। उधर मुनि को एक गाय पुनः-पुनः सींगों के प्रहार से भूमि पर पटक रही थी। यह दृश्य देखकर विशाखनंदी ने मुनि के पूर्वबल का उपहास उड़ाया और कहा कि शालवृक्ष को उखाड़ कर फैंक देने वाला उसका बल अब कहां चला गया है। विशाखनंदी के उपहास ने मुनि की समता को खण्डित कर दिया। मुनि ने गाय का सींग पकड़ कर उसे आकाश में उछाल दिया। इससे भयभीत बनकर विशाखनन्दी वहां से भाग खड़ा हुआ। पर मुनि का रोष शान्त नहीं हुआ। उन्होंने प्रण किया कि भवान्तर में वे विशाखनन्दी का मानमर्दन करने वाले बनें। ___ निदान स्वरूप विश्वभूति भवान्तर में त्रिपृष्ठ वासुदेव बना और विशाखनंदी अश्वग्रीव नामक प्रतिवासुदेव बना। वहां पर त्रिपृष्ठ ने अश्वग्रीव का मानमर्दन करके वैर का बदला लिया। विश्वभूति मुनि ही कालान्तर में भगवान महावीर के रूप में पैदा हुए जो जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर थे। (ख) विश्वभूति
पोतनपुर नगर का पुरोहित और मरुभूति तथा कमठ का जनक। (दखिए-मरुभूति) (ग) विश्वभूति (ब्राह्मण)
उज्जयिनी नगरी का एक ब्राह्मण। वह अपार संपत्तिशाली था, पर जितनी उसके पास संपत्ति थी वह उतना ही बड़ा कृपण भी था। उसके चार पुत्र और चार पुत्रवधुएं थीं। ये आठों ही प्राणी विश्वभूति की कृपणता से संत्रस्त थे और कामना करते थे कि वह मरे तो उनका जीवन सुख से चलने लगे। एक रात्रि में लक्ष्मी ने विश्वभूति को दर्शन दिए और उसे चेताया कि उसके पूर्वपुण्य के कारण ही वह उसके घर में है, भविष्य में पुण्यबन्ध के लिए वह दान-पुण्य करे। लक्ष्मी द्वारा चेताए जाने पर विश्वभूति के हृदय में दान-पुण्य की ऐसी उमंग जगी कि वह अंजली भर-भर कर स्वर्णमुद्राएं याचकों को देने लगा। पिता के इस परिवर्तन पर पुत्रों ने सोचा कि पिता जी पागल हो गए हैं। उन्होंने अपने पिता का उपचार कराया। वैद्यों ने बताया कि इक्कीस दिनों तक सेठ जी को भोजन न दिया जाए, केवल दवा दी जाए। विश्वभूति ने पुत्रों को बहुत समझाया कि वह बीमार नहीं है, पर उसकी एक न सुनी गई।
कहते हैं कि पुत्रों के व्यवहार से संत्रस्त बनकर विश्वभूति पुनः अपनी पुरानी कृपणता की लीक पर लौट गया। तब पुत्रों को लगा कि उनके पिता जी स्वस्थ हो गए हैं। उसके बाद विश्वभूति कृपण का जीवन ... 562 ..
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