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जिस किसी भी रुग्ण अथवा घायल व्यक्ति का स्पर्श करती अथवा जिस पर उसका स्नानोदक छिड़का जाता वह तत्क्षण रोगमुक्त बन जाता था।
राम-रावण युद्ध में रावण ने लक्ष्मण पर शक्ति का प्रहार किया। लक्ष्मण मूञ्छित हो गए। श्री राम के शिविर में निराशा व्याप्त हो गई। विज्ञ जनों ने श्री राम को बताया कि सूर्योदय से पूर्व लक्ष्मण का उपचार संभव है। पर उपचार कैसे हो और कौन करे यह कोई नहीं जानता था। घोर निराशा के उन क्षणों में प्रतिचन्द्र नामक एक विद्याधर ने श्री राम के शिविर में प्रवेश किया। विद्याधर ने श्री राम से कहा, प्रभु ! लक्ष्मण के उपचार का उपाय मैं बता सकता हूँ। श्री राम ने उत्सुकता से कहा, भद्र पुरुष ! मेरे अनुज के उपचार का उपाय शीघ्र बताइए। विद्याधर ने कहा, मैं संगीत पुर नरेश शशिमण्डल का पुत्र हूँ। एक बार एक विद्याधर से युद्ध करते हुए मैं घायल हो गया और अयोध्या के माहेन्द्रोदय उद्यान में गिरा। तब आपके अनुज भरत जी ने विशल्या के स्नानोदक का सिंचन मेरे शरीर पर किया जिससे मैं शीघ्र ही स्वस्थ हो गया। श्री राम के पूछने पर विद्याधर ने विशल्या का परिचय देते हुए कहा, महाराज ! विशल्या भरत के मामा की पुत्री है। पूर्व जन्म के तपःप्रभाव से उसे विशेष लब्धि प्राप्त है। उसके स्नानोदक से हजारों रोगी मुक्त बन चुके हैं। ऐसा मुझे आपके अनुज से ज्ञात हुआ था।
श्री राम को आशा की किरण दिखाई दी। हनुमान, भामण्डल और अंगद श्री राम की आज्ञा प्राप्त कर आकाश मार्ग से अयोध्या पहुंचे। भरत जी को उन्होंने वस्तुस्थिति से परिचित कराया। उन तीनों के साथ भरत जी कौतुकमंगल नगर में पहुंचे। भरत जी ने अपने मामा को लक्ष्मण मूर्छा की सूचना दी और उससे पुत्री विशल्या की याचना की। द्रोणमेघ ने अविलम्ब अपनी पुत्री लक्ष्मण जी के लिए प्रदान कर दी।
विशल्या को साथ लेकर हनुमान, भामण्डल और अंगद श्री राम के शिविर में पहुंचे। सूर्योदय सन्निकट था। विशल्या ने श्री लक्ष्मण जी के शरीर का स्पर्श किया। उसके स्पर्श के प्रभाव से लक्ष्मण के शरीर से शक्ति का प्रभाव तत्क्षण नष्ट हो गया। लक्ष्मण स्वस्थ हो गए। श्री राम के शिविर में हर्ष की लहर दौड़ गई।
विशल्या का विवाह लक्ष्मण जी के साथ ही हुआ। युद्ध में घायल सैनिकों पर विशल्या का स्नानोदक प्रक्षेपित किया गया जिससे सभी घायल सैनिक स्वस्थ हो गए।
-जैन रामायण (क) विशाखदत्त
जयत्थल नगर का एक धनी और बुद्धिमान सेठ। (देखिए-संवर) (ख) विशाखदत्त
कौशाम्बी नगरी का एक दृढ़धर्मी श्रावक । वह नगर का धनी-मानी सेठ था। पर उसके पूर्वजन्म के पाप उदय में आए और वह अपनी समस्त समद्धि गंवा बैठा। उसने वईरागर देश के बारे में सना था कि वहां वजरत्नों की खान है। कछ मित्रों के साथ वह वईरागर देश के लिए चल दिया। पर मार्ग में उसके मित्र ही द्रोही बन गए और उसके पास जो भी साधन-सामग्री थी उसे चुरा कर भाग गए। असहाय-निरुपाय सेठ किसी तरह वईरागर देश में पहुंचा। पर उसके समक्ष एक समस्या यह थी कि उसे वज्ररत्नों की पहचान नहीं थी। वह वहां मेहनत-मजदूरी करके उदरपोषण करने लगा। दिवाकर नामक एक योगी की दृष्टि सेठ पर पड़ी। उसने उसे अपने वाग्जाल में उलझा लिया और कहा कि यहां से तीन कोस की दूरी पर कात्यायिनी देवी का मंदिर है। उस मंदिर के पास ही पांच करोड़ सोनैया का कोष दबा हुआ है। वह जाए और उस कोष को प्राप्त कर ले। सेठ देवी के मंदिर के निकट गया। योगी उसके साथ था। योगी ने उससे कहा कि खुदाई ..-560 .
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