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प्रदान किया और सदैव अप्रमत्त रहने की शिक्षा देकर समाधिमरण को प्राप्त हो गए ।
आचार्य पाट पर आ जाने से विजयचन्द्र मुनि में प्रमाद की मात्रा बढ़ गई। शिष्य वाचना लेने के लिए आते तो वे टाल देते और कहते, स्वाध्याय व्यर्थ है, तप-जप- प्रतिक्रमणादि उत्तम विधियां हैं आत्मकल्याण की। आचार्य श्री की इस मानसिकता का दुष्प्रभाव यह हुआ कि मुनि संघ में ज्ञान -रुचि शिथिल होने लगी । इससे आचार्य विजयचन्द्र ने दुःसह ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध किया। मरकर वे देव बने । देवायु पूर्ण करके श्रेष्ठी पुत्र बने । ज्ञानावरणीय के उदय के कारण श्रेष्ठि-पुत्र वज्रमूर्ख था। उसके पिता ने हजार उपाय किए पर उसका पुत्र एक शब्द न सीख पाया। एक जैन मुनि ने श्रेष्ठि-पुत्र की अवस्था को जाना और ज्ञानावरणीय कर्म की निर्जरा के लिए उसे उपाय बताया कि वह ज्ञानियों का बहुमान करे और ज्ञानोपयोगी उपकरणों का ज्ञानपिपासुओं को दान करे। वैसा करके वणिक पुत्र ने ज्ञानावरणीय कर्म र्के बंध को कुछ शिथिल किया। आयुष्य पूर्ण कर वह स्वर्ग में गया। वहां से च्यव कर पुनः मनुष्य बना। उसका नाम धनदत्त रखा गया। इस जन्म में भी उसने ज्ञानियों के सेवा - बहुमान तथा ज्ञानोपयोगी उपकरणों के दान का सिलसिला जारी रखा । फलतः उसका ज्ञानावरणीय कर्म क्षीण हो गया। वह मुनि बन गया और घनघाती कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान IT अधिकारी बना । - कथा रत्नकोष : भाग 1
(ख) विजयचन्द्र
कामपुर नगर का राजा । (देखिए -केशरी)
(क) विजय चोर
राजगृह नगर के बाहर चोरपल्ली का सरदार जिसके अधीन पांच सौ चोर थे । ( देखिए- चिलातीपुत्र) -ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
(ख) विजय चोर
पुरिमताल नगर के निकटवर्ती पहाड़ियों में पल्ली बनाकर रहने वाला एक दुःसाहसी चोर । वह पांच सौ चोरों के समूह का नेता था । - विपाक सूत्र- 3 विजयदेव (आचार्य)
श्वेताम्बर मंदिर मार्गी तपागच्छ परम्परा के एक प्रभावक जैन आचार्य। उनके गुरु का नाम विजयसेन सूरि था ।
आचार्य विजयदेव सूरि का जन्म गुजरात प्रदेश के इलादुर्ग गांव में हुआ। वे महाजन परिवार से थे । उनके पिता का नाम स्थिर और दादा का नाम माधव था । उनकी माता का नाम रूपा देवी था । गृहस्थावास में उनका स्वयं का नाम वासुदेव कुमार था ।
वी.नि. 2104 (वि. 1634) में आचार्य विजयदेव का जन्म हुआ। वी. नि. 2113 (वि. 1643) में उन्होंने दीक्षा धारण की। वी. नि. 2127 (वि. 1657 ) में वे आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए ।
आचार्य विजयदेव सूरि का प्रभाव सामान्यजन से लेकर सम्राटों तक पर था । बादशाह जहांगीर, उदयपुर नरेश जगतसिंह, ईडर नरेश रायकल्याण मल आचार्य विजयदेव के व्यक्तित्व और तपप्रधान जीवन से विशेष प्रभावित थे। बादशाह जहांगीर ने उनको 'महातपा' उपाधि प्रदान की थी।
मारवाड़, मेवाड़ और सौराष्ट्र आचार्य विजयदेव के विहार क्षेत्र रहे। ••• जैन चरित्र कोश
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